खेत सिंह की जन्म जयंती ,
हर्षित मन फिर अपरंपार !
मित्र सखा सम्बन्धी आएं ,
आएं रिश्ते नाते दार !
तीन दिवस फिर लगेगा मेला ,
वीरों की रजधानी में ,
मैं भी आऊँ तुम भी आओ ,
बुला रहा है गढ़ कुण्डार ............."अशोक सूर्यवेदी"
Tuesday, December 9, 2014
जयंती :- बुला रहा है गढ़ कुण्डार ...!
Friday, October 10, 2014
करवाचौथ
मैंने पूछा श्रीमती जी , करवाचौथ राखती हो ,
क्या है राज छोड़ लाज , मुझे बतलाइये !
स्वस्थ हूँ मैं , सांड हूँ मैं , राम जी का बाण हूँ ,
मेरे लिए भूखी आप , ये न जतालाइए !
श्रीमती जी हार के , फिर बोली हमसे प्यार से ,
कौन हैं जी आप , हमें ये न जतालाइए !
गृहलक्ष्मी हूँ मैं स्वामी , उल्लू ही बने रहो ,
ताहि सों रखा है चौथ, सत्य जान जाइये ...!!!
Wednesday, September 17, 2014
Friday, August 15, 2014
Tuesday, August 12, 2014
Saturday, August 9, 2014
"रक्षाबंधन :- राखी का त्यौहार "
आज रक्षा बंधन है सभी भाई बहिनों को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभ कामनायें ...!!
द्वापरयुग की देन है राखी का पर्व , जब बहिनों ने भाई की कलाई पर राखी बांधने की परंपरा डाली ! धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल ने जब भगवान् श्रीकृष्ण को अपमानित करते हुए मर्यादा की सीमाओं को पार किया और भगवान की सहन शक्ति की सीमा भी चुक गयी तो उन्होंने पास खड़ी द्रौपदी के हाथ से थाली लेकर उसमे सुदर्शन का आह्वान कर उसे शिशुपाल की गर्दन पर फेका तो शिशुपाल की गर्दन धड से अलग हो गयी लेकिन इस थाली के फेकने के क्रम में श्रीकृष्ण की कलाई में थाली की किनारी रगड़ जाने से जख्म हो गया द्रौपदी ने देखा तो तुरंत अपनी साड़ी को फाड़कर कन्हैया जी के हाथ में पट्टी बाँध दी .....धर्म बहिन द्रौपदी के इस आचरण ने कन्हैया जी को रोमांचित कर दिया उन्होंने द्रौपदी को हर संकट में रक्षा करने का वचन दिया .......कालांतर में हस्तिनापुर की राजसभा में दुशासन ने जब द्रौपदी के बस्त्र हरण का प्रयास किया तो भगवान् श्री कृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा की तभी से बहिने अपने भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर उनसे अपनी रक्षा का वचन लेती हैं .....!!
"बने जुझौति राज्य हमारा, राजधानी हो गढ़कुंडार"
हम कलम पथी निज धार छोड़ ,
है खड्ग पंथ पर कलम धार !
मित्र मंडली मेरी सारी ,
हो गयी है अब तो खंगार !
खड्ग मार्ग पर कलम पथी हम ,
लेकर यह संकल्प चले !
बने जुझौती राज्य हमारा ,
राजधानी हो गढ़ कुंडार !!
............'अशोक सूर्यवेदी"
Thursday, August 7, 2014
Wednesday, August 6, 2014
गढ़कुंडार की ख़ामोशी
यौवन का रसिया जग सारा ,
बना रहे जब तक सिंगार !
सकल साधना चुक जाती है ,
मित्थ्याकर्षण का आधार !
देख मनुज की दुर्बलता को ,
ही ख़ामोशी ओढ़ गया !
न उपेक्षा न ही इच्छा अब ,
पाला करता गढ़ कुंडार !!
......................"अशोक सूर्यवेदी"
Tuesday, August 5, 2014
"गुरु गढ़कुंडार"
दुनियाँ भर की पोथीं पढ़ लो ,
ग्रंथों वेदों का भी सार !
जीवन स्नातक हो जाओगे ,
आ जाओ बस इक ही बार !
जीवन की शाला का दर्शन ,
यहाँ रमा है कण कण में !
शाश्वत सत्य का पाठ पढाता ,
रहकर मौन भी गढ़ कुंडार !!
..................."अशोक सूर्यवेदी"
Monday, August 4, 2014
"शाश्वत सत्य और गढ़कुंडार"
झूठी रीती झूठी प्रीती ,
झूठे रिश्ते नातेदार !
झूठे बंधन झूठी माया ,
झूठा है यह संसार !
दुनियां भर के भोग भोगकर ,
सेज मिलेगी शोलों की !
शाश्वत सत्य जगत में एक ही ,
बोध कराता गढ़ कुंडार !!
..............."अशोक सूर्यवेदी"
Sunday, August 3, 2014
नील कंठ सा गढ़ कुंडार
सत्ता के उत्थान पतन में,
हक में आई जीत न हार !
नियति नटी ने निर्णायक बन ,
माथा झूठ को बारम्बार !
सागर "समय" के मंथन में तब ,
द्वेष भाव का विष निकला !
अपमानों का गरल गटक है ,
नीलकंठ सा गढ़ कुंडार !!
.............."अशोक सूर्यवेदी"
Friday, August 1, 2014
काल चक्र का झंझावत और गढ़कुंडार
रत्न जडित स्वर्ण सिंहासन ,
मुक्ता मणियों के उर हार !
शीश मुकुट बहु बेशकीमती ,
सब हो गए हैं क्षार क्षार !
दुनियां वालो देखो नाटक ,
नियति नटी के नर्तन का !
काल चक्र के झंझावत में ,
बचा अकेला गढ़ कुंडार !!
..................."अशोक सूर्यवेदी"
Thursday, July 31, 2014
"गढ़कुंडार की नीरवता"
शासन सत्ता न्योता देते ,
और बुलाते आग व धार !
दरबारों की रौनकता पर ,
शीश कटाते बारम्बार !
कर्कशा ,कुटिल ,कौटाली थी ,
तजी ,रौनकता यह जान !
रचा कर नीरवता से व्याह ,
मौज मनाता गढ़ कुंडार !!
.............."अशोक सूर्यवेदी"
Wednesday, July 30, 2014
"लुकाछिपी गढ़कुंडार की"
मंजिल पास आ जाती है तो ,
आड़े आता है संसार !
रोड़े और रूकावट है भ्रम ,
लौट न जाना तू थक हार !
इसकी जटिल भुगौलिक रचना ।
हृदय भाँपती आगत का !
सो पथिक से लुकाछिपी सी ,
करता रहता गढ़ कुंडार !!
..........."अशोक सूर्यवेदी"
Tuesday, July 29, 2014
"ध्रुव तारे सा गढ़कुंडार "
आँख फेरकर कल तक निकले ,
किंतु करोगे अब तुम चार !
सच्चाई पर थी जो चादर ,
आज हुई वो जर जर तार !
इस गढ़ की गौरव गाथा सुन ,
धाये कई एक कलम वीर !
ध्रुव तारे सा चमकेगा अब ,
जग में फिर से गढ़ कुंडार !!
.........."अशोक सूर्यवेदी"
Monday, July 28, 2014
"बूढ़ा गढ़कुंडार "
धीर सुतों का ह्रदय रक्त जों ,
बना प्रसूता का सिंगार !
वीर सुतों के वर शीशों पर ,
इतराता है बारम्बार !
इतिहासों ने किया किनारा ,
बूढ़े की बातों से पर -
बार बार बलिदानी गाथा ,
दोहराता है गढ़ कुंडार !!
................."अशोक सूर्यवेदी "
को जाय चमरौरे कान ...?
डुकर बाबा घर की चिक चिक से दूर बेड़ा में सोन परन लगे ते , "उतयीं कलेवा उतयीं व्याई " जौ बंदोवस्त लरका बऊ ने कर दओ तो , डुक्को संजा सबेरें बेड़ा में रोटी के संगै " चार चोटिया " भी मौका बेमौका पकरा आउत तीं !
एक दिना की बात घरै सास बऊ में ठन गयी खूब "रांड़ें मुंडी" भईं ! रोटी की बेरा कड़ गयी लराई में , डुक्को मों फ़ुलै कें चौंतरा पै बैठ गयीं और बऊधन गोबर लैकें द्वारौ लीपन लगीं !
उतै बेड़ा में डुक्को रोटी दैवे न पौंची , सूरज बिलात ऊपर लौ चढ़ आओ , डुकर बाबा की आंतें कुन्नान लगीं तो डुकर बाबा लठिया लेकें , खुदयीं घर ताँय टिरक चले ! गली में घुसतनईं डुक्को और बऊधन द्वायें दिखानी , बूड़े कीं आँखें ताड़ गयी कै घरै "धीनक धीना" हो गओ !
डुकर ने डुक्को सें मसकरी के लाने कई :- आज काये मच गओ लीपक लीपा ...?
डुक्को तौ भरीं बैठीं तीं सो तपाक से बऊ की पोल खोलती बोलीं :-" बऊ नें आ न्यौत बुलाओ छीपा "
बऊ काये चुप राती ऊने सास की उघार बे खां कई :- "दद्दा सुनों हमारी बानी , बाई बुलाय आईं पंडित ग्यानी"
इतेक में डुकर कौ लरका आ गओ ऊने जानी घरै आज कछू "दार बरी" कौ औसर आ है सौ अपनी मनवासन खां बुलाबे की सिफारस के लाने बोल परो :- "इतनी धूम धाम मचाई तौ काये न धोबन गयी बुलाई "
बब्बा की बिन्नू कड़ भगीं इतेक में उनने सुनी , और सोची सब आयें तो हमाव मन बसिया काय रे जाबे सौ साद के उनयीं ने कै डारी :- "कछुक तातौ कछुक बासौ, थोरौ भौत कडेरौ खातो".....
डुकर ने सबकी सुनी और मन मसोश कें जा कत पौर में कड़ गये कै "अपनी अपनी परी है आन को जात अब चमरौरे कान"..........हती किसा हो गयी....!!
लोकसाहित्य से विलुप्त हो रही लोककथा (किसा) को शब्द देने की एक कोशिश मात्र ......."अशोक सूर्यवेदी"
Sunday, July 27, 2014
" मैं शिला लेख का पत्थर हूँ "
भाट नहीं हूँ ना कोई चारण ,
जो बिरुदावली बखान करूँ !
शासन सत्ता राजमहल का ,
क्यों कर मैं गुणगान करूँ !
पीड़ा हूँ मैं जन गण मन की ,
खून सना संबोधन हूँ!
राजमहल से प्रश्न पूंछता ,
चौबारों का उद्बोधन हूँ !
केवल सच ही मेरी शैली है,
मैं दर्पण सा प्रतिउत्तर हूँ !
मैं झाँसी बाला बेटा हूँ ,
मैं शिला लेख का पत्त्थर हूँ !
ना चरण चूमना वंदन करना ,
पलक बिछाना सरकारों को !
जूझ के जीना जूझ के मरना,
ये आदत हम फनकारों को !
हमने हरदम डांट लगाई ,
सब कर्महीन दरवारों को !
राजतन्त्र से प्रजा तंत्र तक,
सब बेगैरत सरकारों को !
यदि विपत्ति में हो कोयल ,
गीत नहीं वो गाती है !
पिंजरे में हो मैना तो फिर,
नहीं मधुमास मनाती है !
तो क्या हम इनसे भी,
गए गुजरे इंसानों के भेष में !
कैसे हम मधुमास लिखें ,
जब आग लगी हो देश में !
मेरी आँखों में लावा है ,
विश्वास मुझे तुम शीतल दो !
शस्य श्यामला भू पर मुझको ,
मुस्कानों का समतल दो !
तो फिर मैं भी गीत लिखूंगा ,
पावस के अभिनन्दन के !
लेकिन पहले बंद करा दो ,
स्वर करुणा के क्रंदन के !
जिस दिन झोपड़ियों का आंसू ,
मुस्कान बना लेगें हम !
ना दिखे चाँद पर उस दिन ,
ईद मना लेंगे हम !!!!!!!!!
"देख चुका है गढ़कुंडार"
शौर्य वीरता के दिन देखे ,
भोगे बिलास बेशुमार !
सदा न शासक रहे चंदेले ,
रह न पाए राय खंगार !
ये शासन सत्ता राजलक्ष्मी ,
एक जगह कब ठहरे हैं ?
कैसे कैसे रूप बदलते ,
देख चुका है गढ़ कुंडार !!
"अशोक सूर्यवेदी"
Saturday, July 26, 2014
" चलो दीपक जलाता हूँ "
अँधेरा है , मगर फिर भी,चलो दीपक जलाता हूँ !!
निशा ने आज ठाना है ,
रौशनी होने न देगी !
होगा नहीं उजाला अब ,
धरा अम्बर को तरसेगी !
तिमिर से मैं , मगर फिर भी , सदा विपरीत जाता हूँ !
अँधेरा है , मगर फिर भी , चलो दीपक जलाता हूँ !!
मेघों ने कहा हुंकार ,
कर ले दासता स्वीकार !
चाँद तारे सभी तेरे ,
छुपे देखो मुझसे हार !
मगर निष्ठा मेरी ज्योति , उसे ही आजमाता हूँ !
अँधेरा है मगर फिर भी , चलो दीपक जलाता हूँ !!
अँधेरे का देखो राज ,
मूक है सारा विज्ञ समाज !
सक्षम जो करते प्रतिरोध ,
नदारद उसको देकर ताज !
मेरी हस्ती है छोटी सी , तो खुद को ज्वाल बनाता हूँ !
अँधेरा है मगर फिर भी , चलो दीपक जलाता हूँ !
प्रलय का दम घटा भरती ,
सहमती काँपती धरती !
तिमिर के राज में कुछ भी ,
रहेगा शेष कहीं नहीं !
प्रलय से मैं नहीं डरता , सृजन के गीत गाता हूँ !
अँधेरा है , मगर फिर भी , चलो दीपक जलाता हूँ !"
........"अशोक सूर्यवेदी"......
"बतलाता है गढ़कुंडार"
जुल्मी , हुकूमत , तानाशाही ,
पाप , अराजक , व्यभिचार !
ये फसलें हैं कितने दिन की ?
लहरा लें दिन दो या चार !
आतंक रहा न रावण का ,
ना सदा कंस की सत्ता ही!
समय मसीहा बनकर आता ,
बतलाता है गढ़ कुंडार !!
Thursday, July 24, 2014
यही सिखाता गढ़कुंडार
रहे न राजा रजवाड़े ,
न महारानी राजकुमार !
न महलों में तुरही बजती ,
न ही सजते हैं दरबार !
राज बदल गए न्रपतियों के ,
राजलक्ष्मी भी जा सोयी !
पर यश अपयश सदा जियेंगे ,
यही सिखाता गढ़ कुंडार !!
....................."अशोक सूर्यवेदी"
Wednesday, July 23, 2014
" कुंडार दर्शन "
इतिहासों के जर्जर पन्ने ,
खंडहरों के दर्द शुमार !
गूँथ के लाया तुकबंदी में ,
गए महलों के आंसू चार !
मुझको कविता की समझ नही ,
मत कवि कहना मुझे मगर !
तुम्हे सुनाऊंगा मैं सब जो ।
कहता मुझसे गढ़ कुंडार !!
................." अशोक सूर्यवेदी "
खेतसिंह हैं महान
कालिंजर कुंडार ,
महोबे पै फहराती जो ,
कीर्ति ध्वजा ,
खंगधारिओं ने फहराई है !
खजूरिया वो खजुराहो ,
कर रहा गुणगान ,
खेत सिंह हैं महान ,
युग नारी हरषाई है !
नंगी भोग्या जो ,
वस्तु बनी थी बाजार की ,
खेत सिंह राज्य ,
पूज्य ध्वजा बनी छाई है !
हुए जन बिह्वल ,
गायें सब करतल ,
हमें तो सत्ता श्रेष्ठ ,
खंगारों की ही आई है !
..........."अशोक सूर्यवेदी"
Tuesday, July 22, 2014
जय खंगार
कर आचमन माँ वेत्रवती से ,
गणपति को शीश झुकता हूँ !!
फिर माँ सरस्वती मैं तेरे दर पर,
याचक बनकर आता हूँ !!
माँ से शब्द सम्पदा ले अब ,
इतिहासों के साक्ष्य जुटाता हूँ !!
फिर गिरिवासन तेरे दर पर,
श्रद्धा से शीश झुकता हूँ !!
कुलदेवी मात गजानन ",
साक्षी मैं यह तुमसे रखता आस !!
साथ कलम का देकर माँ अब ,
लिखवा दो तुम इतिहास !!
वीर की गाथा है यह जिसने ,
जूझ के जीना मरना सीखा !!
तो सच को सच गाने की खातिर ,
मैंने भी कब डरना सीखा !!
जो म्रत्यु भय से मुक्त कराती ,
मातु कालिके नमस्कार ! !
अब निर्भय होकर गाता हूँ ,
मैं गौरव गाथा जय खंगार !!
"अशोक सूर्यवेदी "
Monday, July 21, 2014
गिद्ध वासनी पुकारती है
वीरों की ये वीर भूमि !
चोरों का है गढ़ हमें ,
ये न बतलाइए !
राष्ट्र हित धर्म हित ,
उठाया है खड्ग नित!
गाथा खंगारों की छुपी ,
पर्दा हटाइए !
भारती के पूतो ,
गिद्ध वासनी पुकारती है !
खेतसिंह जैसे सिंह ,
को न विसराइए !
बांदेलों का कहा सुना ,
सत्य से है परे सदा !
अंधी कानी दौड़ में न ,
कलम लजाइए .....!!
अशोक
कुंडार को नमन है
शेरों सा है शेर वंश ,
वीरों में है वीर वंश !
महारुद्र अंश ,
खंगार को नमन है !
नारी की सुरक्षा हित ,
वीरों की परीक्षा हित !
चमकी जो सदा ,
असिधार को नमन है !
केशर ने जौहर किया ,
मानी स्वाभिमानी थी !
भस्मी भूति देह ,
अंगार को नमन है !
जूझना परम्परा है ,
जुझौति वसुंधरा है !
वीरों का है धाम ,
कुण्डार को नमन है !!
.........."अशोक सूर्यवेदी"
"गीत लिखूंगा तुम गाना "
अब सड़क किनारे बाहर गाँव ,
झड़ी में फिर बेर पकेंगे ,
लिए तुम्हारे मैं तोडूंगा ,
खट्टे मीठे तुम खाना ,
रक्त बिन्दुओं से ऊँगली पर ,
गीत लिखूंगा तुम गाना !
जाना , तुम न जाना , तुम न जाना .........!!!
Sunday, July 20, 2014
" उमर बीत गयी "
शेष बचा जीवन कितना !
काम तनिक न हुआ जन्म का ,
लेकर आया था जितना !
आगाह तुम्हें करता हूँ ,
प्रिय तुम भूल न जाना !
निज अनुभव लेकर के ,
मैं गीत लिखूंगा तुम गाना !
जाना , तुम न जाना , तुम न जाना ...!
Saturday, July 19, 2014
जाना , "तुम न जाना "
जाना , तुम न जाना !
श्रम साध कुआँ खोदूँगा मैं ,
गैंती तसला मेहनत से ,
मैं गीत लिखूंगा तुम गाना ,
जाना , तुम न जाना , तुम न जाना ....!!
Monday, July 7, 2014
बज़ट : एक सामान्य जानकारी
दुनिया भर के देशो में वार्षिक लेन-देन के लिए
प्रयोग किया जाने वाला शब्द ‘ बजट ‘
काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय है | बजट शब्द
की उत्पत्ति की कहानी भी काफी रोचक
है | ‘बजट’ शब्द कि उत्पत्ति फ्रैंच भाषा के
शब्द बूजट से हुयी है जिसका अर्थ होता है ‘
चमड़े का थैला ‘ या ‘ झोला ‘ । सन १७३३ में
ब्रिटेन के तत्कालीन वित्त मंत्री सर राबर्ट
बालपोल ने संसद के समक्ष वित्तीय
प्रस्तावो को प्रस्तुत करने के लिए मेज पर रखे
थैले में से जब अपने व्यक्तव्य
कि प्रति निकाली, उस समय सदस्यो ने
खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि ‘ अब वित्त
मंत्री ने अपना ‘ बजट ‘ चमड़े
का थैला खोला है ‘ । तभी से विश्व भर के
देशो में वार्षिक लेन-देन के लिए ‘ बजट ‘ शब्द
का प्रयोग होने लगा है |