डुकर बाबा घर की चिक चिक से दूर बेड़ा में सोन परन लगे ते , "उतयीं कलेवा उतयीं व्याई " जौ बंदोवस्त लरका बऊ ने कर दओ तो , डुक्को संजा सबेरें बेड़ा में रोटी के संगै " चार चोटिया " भी मौका बेमौका पकरा आउत तीं !
एक दिना की बात घरै सास बऊ में ठन गयी खूब "रांड़ें मुंडी" भईं ! रोटी की बेरा कड़ गयी लराई में , डुक्को मों फ़ुलै कें चौंतरा पै बैठ गयीं और बऊधन गोबर लैकें द्वारौ लीपन लगीं !
उतै बेड़ा में डुक्को रोटी दैवे न पौंची , सूरज बिलात ऊपर लौ चढ़ आओ , डुकर बाबा की आंतें कुन्नान लगीं तो डुकर बाबा लठिया लेकें , खुदयीं घर ताँय टिरक चले ! गली में घुसतनईं डुक्को और बऊधन द्वायें दिखानी , बूड़े कीं आँखें ताड़ गयी कै घरै "धीनक धीना" हो गओ !
डुकर ने डुक्को सें मसकरी के लाने कई :- आज काये मच गओ लीपक लीपा ...?
डुक्को तौ भरीं बैठीं तीं सो तपाक से बऊ की पोल खोलती बोलीं :-" बऊ नें आ न्यौत बुलाओ छीपा "
बऊ काये चुप राती ऊने सास की उघार बे खां कई :- "दद्दा सुनों हमारी बानी , बाई बुलाय आईं पंडित ग्यानी"
इतेक में डुकर कौ लरका आ गओ ऊने जानी घरै आज कछू "दार बरी" कौ औसर आ है सौ अपनी मनवासन खां बुलाबे की सिफारस के लाने बोल परो :- "इतनी धूम धाम मचाई तौ काये न धोबन गयी बुलाई "
बब्बा की बिन्नू कड़ भगीं इतेक में उनने सुनी , और सोची सब आयें तो हमाव मन बसिया काय रे जाबे सौ साद के उनयीं ने कै डारी :- "कछुक तातौ कछुक बासौ, थोरौ भौत कडेरौ खातो".....
डुकर ने सबकी सुनी और मन मसोश कें जा कत पौर में कड़ गये कै "अपनी अपनी परी है आन को जात अब चमरौरे कान"..........हती किसा हो गयी....!!
लोकसाहित्य से विलुप्त हो रही लोककथा (किसा) को शब्द देने की एक कोशिश मात्र ......."अशोक सूर्यवेदी"
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