Saturday, March 21, 2015

गढ़ कुण्डार का जौहर

ईसवी सन् 1347 की बात है  जुझौती वसुंधरा युद्ध की आग में दहक रही थी । #खंगार  राजकन्या केशर दे के स्वाभिमान को लेकर छिड़ी यह जंग जुझौती के आमजन के स्वाभिमान की जंग बन चुकी थी स्त्री पुरुष बच्चे बूढ़े सभी वर्ग #कुण्डार  के महामहल की प्रतिष्ठा के लिए नौ माह से जूझ थे । बर्बर तुगलक की बड़ी सेना के सामने पराजय सुनिश्चित थी पर यह भूमि तो जुझारू संस्कृति के पालक पोषक खंगार भूपतियों की थी जिन्होने झुकना नहीं जूझ के ही जीना मरना ही सीखा और सिखाया था ।  महिलायें सुबह से अपने पति , पुत्र और भाइयों को विजय तिलक कर यह वचन देकर भेजने लगी कि #ठाँडे रै तो गढ़ गढ़ जै हैं , बैठे भये तो सर्गै जैंहें" अर्थात जब तक हम में समर्थ है तब तक हैम भी जुझौती के हर गढ़ और मोर्चे की सुरक्षा में सनद्ध रहेंगे और सामर्थ चुकने पर अग्नि का वरण कर जय जय हर कर जौहर करेंगी । गाँव गाँव में शाका वृत लेकर पुरुष युद्ध में कून्द पड़े और महिलाएं आत्मरक्षार्थ जौहर की आग में कूंदने लगीं।
गढ़कुंडार के अधिश्वरों को खंगार राजकुल देवी #गजाननमाता का वरदान था कि कुंडार महामहल किसी भी हमले में नही टूटेगा पर होनी को कुछ और ही मंजूर था साजिशन माता के ऊपर रक्त छिड़का गया देवी का वरदान टूट गया और यहाँ से युद्ध की तश्वीर बदलने लगी  । चैत्र की नवरात्रि का आगमन हुआ महाराज मानसिंह खंगार पूरे वेग से युद्ध कर रहे थे पर होनी को कुछ और ही मंजूर था महाराज मानसिंह वीरगति को प्राप्त हुए महारानी देवल दे ने जौहर वृत का पालन किया किन्तु युद्ध रुका नही राजकुमार #बरदाई सिंह ने छत्र धारण किया और खंगार कुल कन्या केशर दे ने भरोसा दिया कि मेरे जीते जी तुगलक की फतह नही होगी मैं "बा असि खौं कोउए न दैं हों , ता आती खौं लप लप खैं हों " अर्थात मैं उस तलवार को किसी को नही दूंगी ( समर्पण नही करुँगी ) और आती हुई सेना का विनाश करुँगी ! खंगार सेना शाका लेकर मैदान में कून्द पड़ी भयंकर मार काट मची खंगार योद्धाओं का अप्रतिम शौर्य शत्रु सेना में भय उत्पन्न कर गया वे सिर्फ मरने मारने को युद्ध में थे हर हर महादेव के भीषण हुंकार से तुगलक सेना "गीली-पीली" होने लगी । तुगलक सेना की कमान फिरोज शाह का साला सम्हाल रहा था बरदाई सिंह ने हुंकार कर कहा "दो दो पैसे के नौकर नाहक डारौ मूड़ कटाये , हमरी तुम्हरी आन बनी है आ दो मैं एक रह जाये " ....!  खंगारों का संख्याबल भले ही कम था पर मनोबल के वे धनी थे भाग्य की बिडम्बना थी भेड़ियों ने सिंहों को घेर कर नेस्तनाबूद कर दिया । शत्रु सेना कुण्डार के महामहल तक पहुँच गयी राजकुल की वीरांगनायें केशर दे के नेतृत्व में राष्ट्र धर्म के परिपालन को कटिबद्ध थी खंगौरिया पहनने वालीं काली का साक्षात्कार कराने को तत्पर थी "ता आती को" लपलप खाना शुरू कर दिया गया बहुतेरे शत्रु सैनिक रणचंडियों की भेंट चढ़ गए "शत्रु प्रबल था और राष्ट्रधर्म की सुरक्षा अनिवार्य" दामन पर दाग न आये इसलिए जौहर की आग प्रज्ज्वलित कर दी गयी माताओं के बच्चे दुधमुंहे थे वे शत्रु के हाथ पड़कर दास न बन जायें सो माताओं ने अपने कलेजे के टुकड़े अपने हाथों से काट डाले ( "सारे वारे फूल सिराये ताकि जीवे गढ़कुंडार" ) और राष्ट्रधर्म के परिपालन में राजकुमारी केशर दे सहित वीरांगनाओं ने जौहर की यज्ञानल में सर्वस्व की आहुति दे दी । जेता जीत के भी पराजित था और कुंडार का महामहल सर्वस्व निछावर कर आज भी अपनी बलिदानी संतति पर गर्वित है ............"अशोक सूर्यवेदी"