Friday, July 8, 2016

संस्कृताइजेशन

बात उन दिनों की है जब बुंदेलखंड में छुआछुत का ज बोलबाला था , बुंदेलखंड ही क्या पूरा देश इस व्याधि से पीड़ित था आदमी आदमी में जबरजस्त फर्क था वैदिक वर्ण व्यवस्था का स्थान ऊँच नीच में बदल गया था कथित ऊँचे लोगों को नीचे लोगों की परछांई भी अपवित्र कर देती थी , बेचारे निचले तबके के लोग अपने गले में हांडी और पिछवाड़े में झाड़ू लटकाकर चलने पर विवश थे ! हांडी इसलिए कि उनका थूंक पवित्र मार्ग को अपवित्र न कर दे और झाड़ू इसलिए कि उनके स्पर्श से अपवित्र हो रही सड़क पीछे पीछे आप ही पवित्र होती जाये | उच्चवर्णीय लोगों ने पता नही कहाँ से यह सिद्धांत गढ़ रखा था कि "शूद्र के कान में यदि वेद वाक्य पड़ जाये तो उसके कान में  सीसा गर्म करके उड़ेल दो" बेचारे निम्नवर्णी गरीब कथित कुलीनों की दया पर निर्भर थे हांड़ी से थूंक छलक जाये या फिर पिछवाड़े की झाड़ू ऊँची हो जाये तो जान के लाले पड़ जाते थे |
                                   ऐसे ही विकट समय में परम्परागत तरीकों से गाँव में एक धोबी अपना जीवन यापन करता था | धोबी की स्त्री  अर्सा बीते एकमात्र पुत्री रूपा को छोड़कर गुजर गयी  , पुत्री के लिए धोबी ने सौतेली माँ स्वीकार न की और स्वयं ही मनोयोग से पुत्री का पालन पोषण करता रहा | जब पुत्री अपनी आयु को प्राप्त हुई तो उसके हाथ में गजब का रसायन आया और रूपा का रूप लावण्य भी चरमरा कर उभरा , धोबी कन्या के हाथ पीले कर अपना कर्तव्य पूर्ण कर पाता इसके पहले ही ईश्वर का बुलावा आ गया इधर धोबी राम को प्यारा हुआ और उधर रूपा पर विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा | धोबिन की परछांई से भी जो लोग अपवित्र होते जाते थे आज वे ही उसके साथ एकांत भोगने को लालायित दिखने लगे , कदाचित भद्रों की वासना एकांत में शूद्र स्त्रियों के शरीर में समाने में कोई छूत नही मानती | रूपा का गाँव में जब कथित बड़ी जाति के लोगों के छोटे आचरणों से जीना ही मुहाल हो गया तब अकेली रूपा अपने रूप लावण्य की विरासत बचाने एक रोज रात के चौथे पहर के पहले ही घर गाँव को प्रणाम कर निकल पड़ी और भोर होते होते गाँव से काफी दूर निकल गयी , एक नए जीवन की तलाश में आशा भरी निगाहों से उम्मीदों की डगर नापती रूपा ने बड़े नगर में प्रवेश किया , यहाँ गाँव के जैसी संकीर्णता न थी पर जाति का जहर तो हर कहीं विद्यमान था | गरीब रूपा पर भले लोगों की नजर पड़ी रंग रूप से रूपा ब्राह्मण कन्या सी प्रतीत होती थी सो एक सहृदय  धनिक ने उसे अपने घर में चौका चूल्हा सम्हालने के लिए रख लिया , रूपा ने लोगों के अंदाज के अनुरूप खुद को दीन ब्राह्मण कन्या के तौर पर स्वीकार कर लिया और धोबिन होने को हृदय में गहरे दफ़न कर मनोयोग से अपने नियोक्ता की सेवा में खपा सुख से जीवन बसर करने लगी !
                                 दूर कहीं किसी गाँव में एक सिद्दर नाम का कसाई रहता था | गौरवर्ण सिद्दर का नाम उसके माँ बाप ने श्रीधर रखा था किन्तु कसाई के बेटे को श्रीधर भला कौन कहता ? बेचारा श्रीधर सिद्दर ही स्वीकार किया गया , सिद्दर का गौरवर्ण भी लोगों को फूटी आँख न सुहाता पर उसके रंग पर उस बेचारे का क्या वश था | सिद्दर को पता नही कहाँ से भागवत कथा का ज्ञान प्रकट हो गया और वो मँजरे में कसाईयों को कथा सुनाने लगा | "सिद्दर कसाई भागवत कहता है" जब यह खबर गाँव में फैली तो कथित कुलीनों का पारा चढ़ गया , कसाई ने कथा में सेंधमारी की कथा के ठेकेदार कसाई को जान से मारने के लिए दौड़ पड़े | सिद्दर कसाई भी जान बचाने के लिए गाँव घर द्वार छोड़कर दे भागा  नियति का मारा सिद्दर भी वहीं जा पहुंचा जहाँ पंडितानी बनी धोबिन धनिक के घर का चूल्हा चौका कर अपनी गुजर बसर कर रही थी | सिद्दर कसाई दूध में केशर मिले गौर वर्ण का था सुरीला कंठ और मवाणी के सिद्दर यहाँ श्रीधर आचार्य होकर सुपूजित हुए और कथावार्ता का उनका धंधा यहाँ चल पड़ा  | लोगों की नजर में सिद्दर अनाथ ब्राह्मण था जिसके आगे पीछे कोई न था भले लोगों ने श्रीधर आचार्य और रूपा का घर बसाने का मन बनाया "एक को और नही और दूजे को ठौर नही" सो भले लोगों के तनिक प्रयास से दोनों ब्राह्मणवेशी जातकों की जोड़ी जम गयी |
              रूपा की अपनी घर गृहस्थी और श्रीधर आचार्य का अपना घर परिवार सामाजिक मान्यता प्राप्त ब्राह्मण दंपत्ति की घर गृहस्थी भगवत्प्रेमियों के सहारे चल पड़ी | एकांत के क्षणों में दोनों एक दूसरे की हकीकत से वाकिफ हुए लेकिन जीने के लिए अतीत को दफन करना जरुरी था सो पंडिताई का आवरण कभी न हटाने का संकल्प साध लिया | आचार्य श्रीधर कथा भागवत करके धन सम्मान अर्जित करते और रूपा सुघड़ स्त्री की तरह घर गृहस्थी सहेजती | समय बीता और ब्राह्मणवेशी दंपत्ति को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई हर्षित दंपत्ति ने पुत्र का नाम रखा "गजाधर" ...| गजाधर मान्यताप्राप्त कुलीन घर में जन्मा था इसलिए उसे श्रीधर से सिद्दर नही होना पड़ा वह गजाधर ही रहा | माता पिता का सौंदर्य , विनम्रता और वाक्पटुता गजाधर को विरासत में प्राप्त हुयी थी | गजाधर जब सयाने हुए तो आचार्य श्रीधर ने उन्हें पंडिताई पढ़ने बनारस पंडित ब्रह्मदत्त शास्त्री की विद्यापीठ भेज दिया , गजाधर ने मनोयोग से पूरी लग्न और निष्ठा के साथ गुरुजी की सेवा करते हुए बनारस में अध्ययन किया , मेधावी गजाधर शीघ्र ही संगीत और शास्त्र में निपुण शास्त्री हुआ उसके गुरु भी गजाधर जैसा शिष्य पाकर गौरवान्वित थे ! पंडित ब्रह्मदत्त शास्त्री रसिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे और उन्होंने गृहस्थी से दूर एक वैश्या रख छोड़ी थी , उस वैश्या से उन्हें एक सुन्दर कन्या तारा प्राप्त हुई थी जिसे वे किसी भी पिता की भांति सुयोग्य हाथों में सौपना चाहते थे , अपने ही शिष्य गजाधर में उन्हें वह सुपात्र नजर आया और उन्होंने अधिकार पूर्वक गजाधर और अपनी पुत्री तारा का पाणिग्रहण संपन्न करा दिया , गजाधर शास्त्री भी गुरुपुत्री का वरण कर प्रसन्न भाव से अपनी पत्नी को लेकर अपने माता पिता के पास लौट आया | हर्षित महतारी ने पुत्रबधू के स्वागत में मंगलगान करवाये , नजर उतारी और सभी शुभचिंतकों को भोज कराया | नेगाचार के उपरान्त शीघ्र ही बहू घर की जिम्मेवारी सम्हाल सास ससुर की सेवा के लिए तत्पर हुई किन्तु सास ससुर उसकी सेवा से बचते बचाते दिखाई देने लगे , बहू पैर छूने को झुके तो सास ससुर बस बस कर बचने लगें , बहू को झूठी थाली धोने को न छोड़ें सेवा टहल के सभी कर्मों से बहू को वंचित करने का प्रयास तारा को समझ न आता बेचारी समझती भी कैसे अभी अभी तो गृहस्थी में शामिल हुई थी | वह सास ससुर के बर्ताव के लिए खुद को दोषी मान अपनी ही गलती ढूंढने का प्रयास करने लगी | तारा के सभी प्रयास बिफल हुए तो हठ पर उतर आई और एक दिन सास ससुर के सामने सेवा को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गयी , सास ससुर ने बहुत समझाया पर बहू ने अन्न का दाना भी मुँह में न दिया तब श्रीधर आचार्य ने बहू पर अपने कसाई होने और रूपा के धोबिन होने का राज खोलते हुए कहा बेटा तुम ब्राह्मणकन्या हो तुम से सेवा सुश्रूषा कराकर हम नरक के गामी नही होना चाहते ! तारा ने भी सास ससुर के सम्मुख खुद के वैश्यापुत्री होने का राज खोलते हुए कहा कि मुझे अपनी सेवा से वंचित न करें तीनों ब्राह्मणवेशी सास ससुर और बहू अब प्रसन्न थे और गजाधर शास्त्री अपने कमरे में से गा रहे थे :-
माता धोबिन बाप कसाई ,और जा वैश्या की जाई , 

गजाधर तीनों की बन आई ,गजाधर तीनों की बन आई !!  


ब कलम

अशोक सूर्यवेदी