Monday, November 14, 2016

एटीएम और शादी

रविवार को दोनों की ऑफिस की छुट्टी थी। विकास जब सुबह 6 बजे ATM पंहुचा तो इसका नंबर था 80 और उसके ठीक पीछे राधा 81वें नंबर पर खड़ी थी। टाइम पास करने के लिए विकास कानो में इयरफोन लगा कर गाने सुन रहा था और राधा अपने मोबाइल पर नागिन सीरियल देख रही थी।

लाइन खिसक कर जब दोनों 65-66 नंबर पर पहुचे तभी राधा के मोबाईल की बैटरी ख़त्म हो गयी और उसका मोबाइल बंद हो गया। विकास अभी भी मजे से इयरफोन कानो में लगाए मजे से गाने सुनने में व्यस्त था। राधा ने धीरे से विकास से कहा- ‘एक्सक्यूज़ मी! क्या आप इयरफोन पे मुझे भी गाने सुनवाएँगे? विकास ने शर्माते हुए कहा- क्यों नहीं और इयरफोन का एक पीस उसकी तरफ बढ़ा दिया।
गाने सुनते सुनाते दोनों 50-51 वें नंबर पर पहुचे तभी विकास का मोबाईल भी डिस्चार्ज हो कर बंद हो गया।

राधा ने विकास से पूछा -आप कहाँ के रहने वाले हो?

विकास – पटना । और आप ?

राधा – धनबाद।

बातें करते करते दोनों 30-29 वें नंबर पर पहुंचे तब तक विकास और राधा 36 गुण और पसंद -नापसंद मिल चुके थे। विकास ने शर्माते और झिझकते हुए अपनी जेब में बचे हुए 10 का नोट निकाला और उस पर ‘I Love You राधा‘ लिख कर राधा के हाथ में थमा दिया। राधा ने घूरते हुए विकास को देखा और उसके गले लग पड़ी।

लाइन में लगे एक पंडित ने अपने पोथी में देखा और चिल्लाते हुए कहा- अद्भुत! ऐसा शुभ मुर्हत तो कई सालों बाद आया है। लोगों के जोर देने पर पंडित ने मंत्रोच्चारण शुरू किया । विकास और राधा ने ATM के 7 चक्कर लगा कर अपने फेरे पुरे किये। लाइन में लगे लोगों ने अपनी अपनी जेब से 10-10 नोट शगुन में देना शुरू कर दिया तब तक दोनों लाइन में 2-3 नंबर पर पहुच चुके थे।

तभी अंदर से निकल कर एक लड़की ने कहा – ATM में कैश ख़त्म हो गया है। फिर विकास और राधा अपने हनीमून ट्रिप पर दूसरे ATM में पैसे ढूंढने निकल पड़े .............

Saturday, November 5, 2016

Friday, July 8, 2016

संस्कृताइजेशन

बात उन दिनों की है जब बुंदेलखंड में छुआछुत का ज बोलबाला था , बुंदेलखंड ही क्या पूरा देश इस व्याधि से पीड़ित था आदमी आदमी में जबरजस्त फर्क था वैदिक वर्ण व्यवस्था का स्थान ऊँच नीच में बदल गया था कथित ऊँचे लोगों को नीचे लोगों की परछांई भी अपवित्र कर देती थी , बेचारे निचले तबके के लोग अपने गले में हांडी और पिछवाड़े में झाड़ू लटकाकर चलने पर विवश थे ! हांडी इसलिए कि उनका थूंक पवित्र मार्ग को अपवित्र न कर दे और झाड़ू इसलिए कि उनके स्पर्श से अपवित्र हो रही सड़क पीछे पीछे आप ही पवित्र होती जाये | उच्चवर्णीय लोगों ने पता नही कहाँ से यह सिद्धांत गढ़ रखा था कि "शूद्र के कान में यदि वेद वाक्य पड़ जाये तो उसके कान में  सीसा गर्म करके उड़ेल दो" बेचारे निम्नवर्णी गरीब कथित कुलीनों की दया पर निर्भर थे हांड़ी से थूंक छलक जाये या फिर पिछवाड़े की झाड़ू ऊँची हो जाये तो जान के लाले पड़ जाते थे |
                                   ऐसे ही विकट समय में परम्परागत तरीकों से गाँव में एक धोबी अपना जीवन यापन करता था | धोबी की स्त्री  अर्सा बीते एकमात्र पुत्री रूपा को छोड़कर गुजर गयी  , पुत्री के लिए धोबी ने सौतेली माँ स्वीकार न की और स्वयं ही मनोयोग से पुत्री का पालन पोषण करता रहा | जब पुत्री अपनी आयु को प्राप्त हुई तो उसके हाथ में गजब का रसायन आया और रूपा का रूप लावण्य भी चरमरा कर उभरा , धोबी कन्या के हाथ पीले कर अपना कर्तव्य पूर्ण कर पाता इसके पहले ही ईश्वर का बुलावा आ गया इधर धोबी राम को प्यारा हुआ और उधर रूपा पर विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा | धोबिन की परछांई से भी जो लोग अपवित्र होते जाते थे आज वे ही उसके साथ एकांत भोगने को लालायित दिखने लगे , कदाचित भद्रों की वासना एकांत में शूद्र स्त्रियों के शरीर में समाने में कोई छूत नही मानती | रूपा का गाँव में जब कथित बड़ी जाति के लोगों के छोटे आचरणों से जीना ही मुहाल हो गया तब अकेली रूपा अपने रूप लावण्य की विरासत बचाने एक रोज रात के चौथे पहर के पहले ही घर गाँव को प्रणाम कर निकल पड़ी और भोर होते होते गाँव से काफी दूर निकल गयी , एक नए जीवन की तलाश में आशा भरी निगाहों से उम्मीदों की डगर नापती रूपा ने बड़े नगर में प्रवेश किया , यहाँ गाँव के जैसी संकीर्णता न थी पर जाति का जहर तो हर कहीं विद्यमान था | गरीब रूपा पर भले लोगों की नजर पड़ी रंग रूप से रूपा ब्राह्मण कन्या सी प्रतीत होती थी सो एक सहृदय  धनिक ने उसे अपने घर में चौका चूल्हा सम्हालने के लिए रख लिया , रूपा ने लोगों के अंदाज के अनुरूप खुद को दीन ब्राह्मण कन्या के तौर पर स्वीकार कर लिया और धोबिन होने को हृदय में गहरे दफ़न कर मनोयोग से अपने नियोक्ता की सेवा में खपा सुख से जीवन बसर करने लगी !
                                 दूर कहीं किसी गाँव में एक सिद्दर नाम का कसाई रहता था | गौरवर्ण सिद्दर का नाम उसके माँ बाप ने श्रीधर रखा था किन्तु कसाई के बेटे को श्रीधर भला कौन कहता ? बेचारा श्रीधर सिद्दर ही स्वीकार किया गया , सिद्दर का गौरवर्ण भी लोगों को फूटी आँख न सुहाता पर उसके रंग पर उस बेचारे का क्या वश था | सिद्दर को पता नही कहाँ से भागवत कथा का ज्ञान प्रकट हो गया और वो मँजरे में कसाईयों को कथा सुनाने लगा | "सिद्दर कसाई भागवत कहता है" जब यह खबर गाँव में फैली तो कथित कुलीनों का पारा चढ़ गया , कसाई ने कथा में सेंधमारी की कथा के ठेकेदार कसाई को जान से मारने के लिए दौड़ पड़े | सिद्दर कसाई भी जान बचाने के लिए गाँव घर द्वार छोड़कर दे भागा  नियति का मारा सिद्दर भी वहीं जा पहुंचा जहाँ पंडितानी बनी धोबिन धनिक के घर का चूल्हा चौका कर अपनी गुजर बसर कर रही थी | सिद्दर कसाई दूध में केशर मिले गौर वर्ण का था सुरीला कंठ और मवाणी के सिद्दर यहाँ श्रीधर आचार्य होकर सुपूजित हुए और कथावार्ता का उनका धंधा यहाँ चल पड़ा  | लोगों की नजर में सिद्दर अनाथ ब्राह्मण था जिसके आगे पीछे कोई न था भले लोगों ने श्रीधर आचार्य और रूपा का घर बसाने का मन बनाया "एक को और नही और दूजे को ठौर नही" सो भले लोगों के तनिक प्रयास से दोनों ब्राह्मणवेशी जातकों की जोड़ी जम गयी |
              रूपा की अपनी घर गृहस्थी और श्रीधर आचार्य का अपना घर परिवार सामाजिक मान्यता प्राप्त ब्राह्मण दंपत्ति की घर गृहस्थी भगवत्प्रेमियों के सहारे चल पड़ी | एकांत के क्षणों में दोनों एक दूसरे की हकीकत से वाकिफ हुए लेकिन जीने के लिए अतीत को दफन करना जरुरी था सो पंडिताई का आवरण कभी न हटाने का संकल्प साध लिया | आचार्य श्रीधर कथा भागवत करके धन सम्मान अर्जित करते और रूपा सुघड़ स्त्री की तरह घर गृहस्थी सहेजती | समय बीता और ब्राह्मणवेशी दंपत्ति को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई हर्षित दंपत्ति ने पुत्र का नाम रखा "गजाधर" ...| गजाधर मान्यताप्राप्त कुलीन घर में जन्मा था इसलिए उसे श्रीधर से सिद्दर नही होना पड़ा वह गजाधर ही रहा | माता पिता का सौंदर्य , विनम्रता और वाक्पटुता गजाधर को विरासत में प्राप्त हुयी थी | गजाधर जब सयाने हुए तो आचार्य श्रीधर ने उन्हें पंडिताई पढ़ने बनारस पंडित ब्रह्मदत्त शास्त्री की विद्यापीठ भेज दिया , गजाधर ने मनोयोग से पूरी लग्न और निष्ठा के साथ गुरुजी की सेवा करते हुए बनारस में अध्ययन किया , मेधावी गजाधर शीघ्र ही संगीत और शास्त्र में निपुण शास्त्री हुआ उसके गुरु भी गजाधर जैसा शिष्य पाकर गौरवान्वित थे ! पंडित ब्रह्मदत्त शास्त्री रसिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे और उन्होंने गृहस्थी से दूर एक वैश्या रख छोड़ी थी , उस वैश्या से उन्हें एक सुन्दर कन्या तारा प्राप्त हुई थी जिसे वे किसी भी पिता की भांति सुयोग्य हाथों में सौपना चाहते थे , अपने ही शिष्य गजाधर में उन्हें वह सुपात्र नजर आया और उन्होंने अधिकार पूर्वक गजाधर और अपनी पुत्री तारा का पाणिग्रहण संपन्न करा दिया , गजाधर शास्त्री भी गुरुपुत्री का वरण कर प्रसन्न भाव से अपनी पत्नी को लेकर अपने माता पिता के पास लौट आया | हर्षित महतारी ने पुत्रबधू के स्वागत में मंगलगान करवाये , नजर उतारी और सभी शुभचिंतकों को भोज कराया | नेगाचार के उपरान्त शीघ्र ही बहू घर की जिम्मेवारी सम्हाल सास ससुर की सेवा के लिए तत्पर हुई किन्तु सास ससुर उसकी सेवा से बचते बचाते दिखाई देने लगे , बहू पैर छूने को झुके तो सास ससुर बस बस कर बचने लगें , बहू को झूठी थाली धोने को न छोड़ें सेवा टहल के सभी कर्मों से बहू को वंचित करने का प्रयास तारा को समझ न आता बेचारी समझती भी कैसे अभी अभी तो गृहस्थी में शामिल हुई थी | वह सास ससुर के बर्ताव के लिए खुद को दोषी मान अपनी ही गलती ढूंढने का प्रयास करने लगी | तारा के सभी प्रयास बिफल हुए तो हठ पर उतर आई और एक दिन सास ससुर के सामने सेवा को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गयी , सास ससुर ने बहुत समझाया पर बहू ने अन्न का दाना भी मुँह में न दिया तब श्रीधर आचार्य ने बहू पर अपने कसाई होने और रूपा के धोबिन होने का राज खोलते हुए कहा बेटा तुम ब्राह्मणकन्या हो तुम से सेवा सुश्रूषा कराकर हम नरक के गामी नही होना चाहते ! तारा ने भी सास ससुर के सम्मुख खुद के वैश्यापुत्री होने का राज खोलते हुए कहा कि मुझे अपनी सेवा से वंचित न करें तीनों ब्राह्मणवेशी सास ससुर और बहू अब प्रसन्न थे और गजाधर शास्त्री अपने कमरे में से गा रहे थे :-
माता धोबिन बाप कसाई ,और जा वैश्या की जाई , 

गजाधर तीनों की बन आई ,गजाधर तीनों की बन आई !!  


ब कलम

अशोक सूर्यवेदी




                              
                 

Monday, April 11, 2016

रा' खंगार और सिद्धराज

वैभवशाली सोरठ का माननीय राणा था नवघन , किन्तु सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के विरोध के चलते न केवल उसे नाकों चने चबाने पड़े बल्कि अपनी निष्कृति हेतु दांतों से तिनका भी उठाना पड़ा ! वीर पुरुष अपमान से मृत्यु को श्रेष्ठ मानते हैं तो भी सिद्धराज से बदला लेने की आस में नवघन जीता रहा किन्तु सिद्धराज के इस शत्रु की आस पूरी न हो सकी और उसका अंतिम समय आ गया , तब उसने अपने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा :- सुनो क्षत्रियों को उत्तराधिकार में अपने पूर्वजों का बैर भी लेना पड़ता है , तुममें से जो भी कोई सिद्धराज से मेरा प्रतिशोध ले सके वह मेरा सिंहासन ले ले "!
        सिद्धराज से जूझना आसान तो न था सो चारों पुत्र खामोश ही रहे , देर होती देख नवघन ने फिर कहा "मैं पाटन के तोरण कपाट अपने बल से जूनागढ़ में लाकर लगाना चाहता था , वह दिन तो आया नही किन्तु मृत्यु का दिन आ गया जीते जी मेरी अभिलाषा तो पूर्ण हुई नही मेरी मृत्यु भी निराशापूर्ण ही रही " पुत्रों के होंठ तो फड़के किन्तु बात अधरों से बाहर न आई पिता की ओर देखकर चारों ने तुरन्त ही सिर नीचे झुका लिए ! युवराज महिपाल का पुत्र खंगार भी खड़ा था पास ही उसने आगे बढ़कर कहा "राजपाठ तो पिता लें यह ठीक है किन्तु आपका यह दास आपका वैर ग्रहण करेगा आप शांति धारण करें क्रांति का जिम्मा मेरे सिर रहा" नाती की बात सुनकर बृद्ध राणा का मुरझाया चेहरा एक बार फिर दमक उठा "तू ही मेरे राज्य का योग्य उत्तराधिकारी है बेटा , तूने मेरी मृत्यु को सुखमय बना दिया" यह कहकर राणा परलोक को सिधार गया !
                        युवराज महिपाल ने अपने पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए अपने पुत्र के लिए राजपाठ छोड़ दिया , खंगार ने अपने पितामह की आज्ञा में उनके शत्रु सिद्धराज से प्रतिशोध लेने के लिए राजसत्ता सम्हाल ली ! नवघन का नाती खंगार निर्भय और साहसी था उसमे अंगार के समान तेज व्याप्त था , वह सामर्थ्यवान सिद्धराज से प्रतिशोध लेने के उपाय तलाशने लगा , किसी का हित करना किसी के लिए कठिन कार्य है किन्तु किसी का अहित करना सभी के लिए सुलभ है !
                        कहा जाता है कि सिन्धुराज की पुत्री जो स्वयं रत्नरूपा थी उसके लिए ज्योतिषियों ने ऐसे ग्रहदोष बताये थे कि यह कन्या जहाँ भी रहेगी नागिन की तरह उस घर के कुलदीपक बुझा लेगी ! सिद्धराज उस कन्या के पिता ही न थे वे राजा भी थे अतः उन्होंने अपनी उस प्राण-प्रतिमा को वन में विसर्जित कर दिया !
                        वन में वह कन्या एक निःसंतान कुम्भकार दम्पत्ति को मिली जिन्होंने बड़े ही लाड़प्यार से उस राजलली का पालन किया देवी सी रूपणी उस कन्या का नाम राणक दे रखा ! शिशु प्रेम से ही नही चाव से पाले जाते हैं , जो हाथ मिट्टी को आकर देकर स्वर्ण बना देने का काज करते हों वे हाथ भला प्राणाधिक प्रिय कन्या को सँवारने में क्या कसर छोड़ते .....कुंभकार दम्पति के हाथों में राणक दे की गुणगरिमा विकसित होने लगी ! जब वह रूपसी अपने यौवन को प्राप्त हुई तब उस हेमनलिनी की चर्चा चारों ओर चलने लगी , उस के रूप गुण की गंध पाकर सिद्धराज जय सिंह भी आखेट के बहाने राणक दे को पाने की अभिलाषा अपने मन में लिए उसकी सीमा तक आया !
                         जैसे ही यह समाचार खंगार को मिला तो गर्वीले गिरनार का वह सिंह प्रतिशोध का अवसर उपस्थित जान बीच में ही कूँद पड़ा ! कुम्भकार के घर रात में उपस्थित हो खंगार ने राणक दे से प्रणय निवेदन किया और अपने कुम्भकार माता पिता की सम्मति राणक ने रा' खंगार का वरण किया ! नव दंपत्ति के नयनों में प्रेमअश्रु और होंठों पर विजयी मुस्कान थी , जैसे सृष्टि में ओस भरे दो फूल खिले हों ! राणक दे और रा' खंगार के मिलन से वायुमंडल महक उठा !
                             उधर राणक दे रा खंगार की परिणीता हुई और इधर सुनकर सिद्धराज की छाती धधक गयी , उसके हृदय पर भयंकर बज्रपात हुआ उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो पाटन की पटरानी को खंगार ने हर लिया हो दग्ध हृदय से उसने प्रतिज्ञा ली कि "अब धरा पर या तो खंगार ही रहेगा या सिद्धराज".....!!
                               सिद्धराज को अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने में उसे 15 वर्ष लगे इन 15 बर्षों में वह बराबर खंगार से मुँह की खाता रहा और खंगार ने अपने पितामह के प्रणों को पूर्ण किया ! सिद्धराज और खंगार दोनों ही अपने अपने प्रणों के परायण को उद्दत थे , खंगार अपने शत्रु से भागभंग और रानी से रागरंग एक सी उमंग में निभा रहा था इस दौरान राणक दे और खंगार के निश्छल प्रेम से दो नवांकुर सोरठ के महल में पनपे !
                           जूनागढ़ का अजेय दुर्ग खंगार के भांजे देशल और वेशल के कुलघाती होने से टूट गया खंगार के भांजों ने अपने अपने नामों को लजाकर सिद्धराज के हाथों छल से खंगार का वध करवा दिया , किन्तु जब तक खंगार में एक कतरा भी जीवित रहा वह अपने शत्रु का मान मर्दन करता रहा उसके कटे मस्तक ने भी शत्रु को ललकारा और रुण्ड ने भी वेग से प्रहार किया ! सिद्धराज का प्रतिशोध इतना भीषण था कि उसके अपनों का कालेजा भी भय से कांप गया उसने खंगार के दोनों कुमारों का राणक दे के सामने यह कहते हुए बध कर दिया कि सांप के सपेलुए छोड़े नही जाते हैं ! राणक दे समाधिस्थ सी देखती रही , सिद्धराज उसे उसी अवस्था में बड़वान ले गया जहाँ रा खंगार के मस्तक को किले के कंगूरे पर टांग दिया गया ! समूचे राज्य में सनसनी फ़ैल गयी , राज्य का उलटफेर तो चलता है पर सिद्धराज तो सती के सत्व से खेलने को उद्दत था प्रजाजन विजय के हर्ष की जगह सती के शाप के संभावित अनिष्ट से भयभीत हो उठे !
                             बड़वान के राजप्रसाद में राणक दे यों प्रतीत हो रही थी जैसे मंदिर में कोई मौन मूर्ति विराजमान हो परिचारिकायें व्यर्थ ही आज्ञा पालन हेतु उपस्थित थी ! सिद्धराज वहाँ आया और राणक दे को निहारते हुए बोला "राणक दे तुम पाटन की राजलक्ष्मी हो , तुम्हें जिस दस्यु ने हरा था मैं उसे दंड दे चुका हूँ , तुम सिर्फ और सिर्फ मेरी हो , मेरा सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है आओ मेरे बगल में बैठकर पाटन की रानी बनो" जैसे घटाटोप अंधियारे में बिजली चमकी हो मूर्तिवत विराजमान माननी राणक दे बोली " मेरा सिंहासन तो जलती चिता में है जहाँ केवल और केवल वीरगति भोगने वाले मेरे स्वामी ही ऊँचा सिर करके बैठ  सकते हैं आत्ममुग्ध जयसिंह तुम भला उस चिता में जीते जी क्यों जलोगे ?
सिद्धराज ने राणक दे को अपने प्रेम का वास्ता देते हुए कहा मैं तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे प्रेम में वर्षों से जल रहा हूँ ! राणक दे झिड़कते हुए बोली :- कामी कसाई हो तुम प्रेम की बात तुम्हारे मुँह से शोभा नही देती , प्रेम तो पराजय को भी विजय की तरह वरण करता है , प्रेम तो मर के जिलाने में विश्वास करता है प्रेम मार के नही जीता , मेरा यह जन्म मेरे स्वामी के साथ ही पूर्ण हो चुका है मैं यहाँ से बिना कुछ कहे ही जाना चाहती थी किन्तु यह संसार यहाँ किसी को बिना कुछ कहे सुने नही छोड़ता , सुनो सिद्धराज , जूनागढ़ भले ही टूट गया है किन्तु गिरनार अभी खड़ा हुआ है और उसकी गुहाओं में सिंह होते ही रहेंगे ! मैं तुम्हें वर तो नहीं किन्तु वीर तो अवश्य ही मानती थी और अगर मेरे माता पिता का आदेश होता तो तुम्हारा वरण भी करती किन्तु तुम पिछड़ गए , मेरा वर आ चुका था इस जगत में इस नारी का वह एकमात्र नर था ! यदि तुम चाहते तो इस पशुता से बच सकते थे , तुमने मेरे राव राना पर चढ़ाई की इसके लिए मैं तुम्हे दोष नही देती उन्होंने तुम्हे रक्त दान दिया तुम उनको भीरु नही कह सकते , उनका और तुम्हारा कुल बैर था , उन्होंने मेरा हरण नही किया बल्कि अपना हृदय देकर मेरा वरण किया था उनके हृदय में वासना नही उज्जवल उपासना थी ! जब तुमने घर के भेदियों के सहारे घर में घुसपैठ की , तब भी मैं तुम्हें राजनीति के विचार से दोष न दे सकी , किन्तु जब तुमने मेरे सामने मेरे दोनों शिशुओं की कंस के सदृश्य हत्या की तब अंत में मैंने तुम्हें कायर ही पाया ! सिद्धराज बीच में ही फिर बोल उठा " मैंने शिशुओं को किसी भावी भय के कारण नही मारा बल्कि अपने शत्रु के पाप की निशानी जानकर मिटाया जो मेरी चिर प्रेयसी के अखण्ड यौवन पर घात करने चले थे" क्षुब्ध होकर बोली राणक दे तो क्या तुम चाहते हो मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँ कि तुम्हारी किसी रानी का यौवन बिगाड़ने कभी कोई शिशु उनकी कोख में न आये ? किन्तु मैं तुम्हारे निमित्त यह प्रार्थना भी कैसे करूँ क्योंकि मैं तो चाहती हूँ कि तुम्हे भी पुत्र प्रेम का ज्ञान हो , किन्तु इंसान को सिर्फ वही प्राप्त होता है जो ईश्वर उसे देना चाहता है .....!!
सिद्धराज बोला आप मुझसे क्या कहती हो अब कह दो !
राणक दे बोली मेरे लिए चिता सजाने की आज्ञा दो और मुझे मेरे राव राणा का सिर लाकर दे दो !
ऐसा नही हो सकता कि मैं अपने हाथों अपनी निधि खो दूँ , मैं भी देखता हूँ कि कौन मुझे तुम्हे पाने से रोक सकता है यह कहते हुए कामी सिद्धराज बलपूर्वक राणक दे को पकड़ने को उद्दत हुआ दैव कृपा से तभी सिद्धराज का प्रधान जगदेव वहाँ उपस्थित हुआ और उसने सिद्धराज को फटकारते हुए उसका प्रबल प्रतिरोध किया और राणक दे को बहिन मान उसके शील सतीत्व की रक्षा के लिए स्वयं नियुक्त हुआ जगदेव के प्रयासों से साध्वी राणक दे अपने पति के मस्तक को लेकर सती हो गयी ! आज भी सोरठ की रागिनी में इस हतभागिनी की बड़भागिनी पीड़ा गुंजायमान है ..........
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शब्द संयोजन:- अशोक सूर्यवेदी

                

Tuesday, March 15, 2016

रामा नो छावा :- रोमा

दुनिया के 30 देशों में रोमा समुदाय लोगों की संख्या करीब 2 करोड़ है।  ये उन बीस हजार भारतीयों के वंशज हैं जिन्हें दो हजार वर्ष पहले सिंकदर अपने साथ यूरोप ले गया था। इनमें लोहे के हथियार बनाने और चलाने वाले लोग अर्थात आयुधजीवी यौद्धेय , शिल्पकार और संगीतज्ञ थे। ज्यादातर रोमा रूस, स्लोवाकिया, हंगरी, सर्बिया, स्पेन और फ्रांस में बसे हैं। जबकि कुछ रोमानिया, बुल्गारिया और तुर्की में हैं। इनमें भारत की बंजारा, गुर्जर, सांसी, चौहान, खंगार , सिकलीगर, ओड आदि जातियों के लोग हैं।

रोमा समुदाय के लोग विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। इन्हें सर्वोत्तम नर्तक और संगीतकार के रूप में जाना जाता है। फिरदौसी द्वारा लिखित शाहनामा के मुताबिक पांचवीं शताब्दी में ईरान के राजा बैराम गुर के निवेदन पर एक भारतीय राजा ने वहां राष्ट्रीय उत्सव के लिए 20 हजार संगीतकार भेेजे थे। आज उन्हीं के वंशज सारे यूरोप में प्रसिद्ध कलाकार हैं। अपनी अस्मिता पर गर्व के कारण रोमा लोगों ने कठिनतम परिस्थितियों में से गुजरते हुए भी अपनी परंपराओं को जीवित बनाए रखा। वे खुद को "रामा नो छावा" अथार्त् राम के बच्चे कहते हैं .......!!

Tuesday, March 8, 2016

खड्गधारी खंगार नाव खौं चितै रहो

चंदेल चौकड़ी के मूड़ पै सवार खेत ,
खड्गधारी खंगार नाव खौं चितै रहो !

रनखेत में है खेत बाघ सौ बहादुरौ ,
काट काट मुंड अरि रुण्ड खौं रितै रहो !

चकित चाहमान भी चतेरते हैं चौज को ,
चतेरे चमु चंदेल चौंक जौ इतै रहो !

वीरन में वीर खेतसिंह रन खेत माह ,
करत किलोल करबाल खौं जितै रहो !!

Thursday, February 4, 2016

बुंदेलखंड के चौकीदार

भारत वर्ष में चौकीदारी परम्परा अत्याधिक प्राचीन है !  दिघ निकाय के आगण सुत्त के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब जीवो का क्रमिक विकास हुआ और उनमे तृष्णा लोभ अभिमान जैसे भावो का जन्म हुआ तो उन प्रारंभिक सत्वो में विभिन्न प्रकार की विकृतियां पैदा हुईं और आयु में क्रमश: कमी होने लगी | इसके बाद वे लोग चोरी जैसे कर्मो में प्रवृत्त होने लगे और पकडे जाने पर क्षमा याचना पर छोड़ दिए जाने लगे किन्तु लगातार चौर्यकर्म करने के कारण सभी जन समुदाय परेशान हो एक सम्माननीय व्यक्ति के पास गए और बोले तुम यहाँ अनुशासन की स्थापना करो, उचित और अनुचित का निर्णय करो , हम  तुम्हें अपने अन्न में से हिस्सा देंगे उस व्यक्ति ने यह मान लिया | चूँकि वह सर्वजन द्वारा सम्मत था इसलिए महासम्मत नाम से प्रसिद्द हुआ ,  लोगों  के क्षेत्रों  (खेतों) का रक्षक था इसलिए क्षत्रिय हुआ और जनता का रंजन करने के कारण राजा कहलाया !
  इस प्रकार  सभ्यता के विकास के साथ ही जब मानव ने कृषि और पशुपालन की शुरुआत की तभी उपज और पशुधन की निगरानी और रक्षण के लिए चौकीदार वर्ग की आवश्यकता महसूस हुई , इस दायित्व का निर्वाह स्थानीय जाति के किसी एक वर्ग ने किया जो आगे चलकर उनकी आजीविका चलाने  के लिए आरूढ़ हो गया ! ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य जगहों की तरह भारत में भी ऐसे परिवार जिनका जीवन निर्वाह किसानों की वार्षिक उपज में उनकी भागीदारी पर आधारित हुआ एक उपजाति के रूप में पहचाने गए और उनका यह कार्य वंशानुगत हो गया ! ब्रिटिश काल में यह जातियाँ अपराधी के रूप में चिन्हित की गयीं और परंपरागत रूप से उन्ही के ही एक वर्ग को अपने ही साथियों के खिलाफ अभियान चलाने के लिए नियुक्त किया गया ! एक क्षेत्र विशेष की  पुरानी जाति सूचि में "चोर और चौकीदार" जैसे विरोधाभाषी वर्णन पाये जाते हैं ! यह संयोग दो विरोधाभाषी कार्य करने वालों के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है जो भारत के पहाड़ी , जंगली और मैदानी इलाकों में फैले हुए हैं ! ब्रिटिश काल में भी ग्रामीण चौकीदार का पद एक प्रमुख शासकीय कार्य था जो सामान्यतः मूल निवासी जाति द्वारा सृजित किया जाता था ! ब्रिटिश लेखक आर. वी. रसेल ने " The Tribes and Caste Of The Central Provinces Of India में लिखा है कि जो पूर्व में प्रमुख अपराधी जातियाँ थी उन्हीं में से चौकीदारों की नियुक्ति की जाती थी और उन्हें दी जाने वाली पगार के बदले उनके स्वजातियों के अपराधों की परख और उनके द्वारा संपत्ति का नुकसान रोकने की कवायद अपेक्षित थी जातियों का वर्ग जिसने यह पद सम्हाला एक विशेष वर्ग के रूप में विकसित हुआ जैसे खंगार , चढ़ार और छत्तीसगढ़ में चौहान .......!!
               बुंदेलखंड में चौकीदारी ब्रिटिश राज के Police Regulation Act द्वारा अधिनियमित की गयी ! जिसके अनुसार चौकीदार गाँव का एक शासकीय सेवक होता है जिसका प्रमुख कर्त्तव्य अपने प्रभार के गाँव में पहरा देना तथा गाँव की रखवाली करने के साथ गाँव में शांति व्यवस्था और अपराधों पर नियंत्रण करना है उत्तर प्रदेश पुलिस रेगुलेशन एक्ट के अध्याय 9 में चौकीदार अथवा ग्राम पुलिस के अधिकार कर्त्तव्य और नियुक्ति संबंधी व्यवस्था का वर्णन किया गया है चौकीदार की नियुक्ति का अधिकार जिला मजिस्ट्रेट को होता है ! मध्य प्रदेश में चौकीदार अथवा ग्राम पुलिस को कोटवार के नाम से जाना जाता है ....!!
                बुंदेलखंड में प्रारंभिक रूप से चौकीदारी या ग्राम पुलिस की जिम्मेवारी खंगार जाति के लोगों को सौंपी गयी खंगार बुंदेलखंड अथवा विंध्यांचल क्षेत्र की मूल निवासी प्राचीन क्षत्रिय जाति है अपने अदम्य साहस और क्रांतिकारी गतिविधियों  के लिए प्रख्यात यह जाति एक समय बुंदेलखंड की राज्यधिकारिणी जाति थी और बुंदेलखंड के बृहद भूभाग पर उनका शासन होने की पुष्टि विभिन्न स्त्रोतों से होती है ! राजसत्ता से बेदखल होने के उपरांत यह जाति दुस्साहसिक अभियानों द्वारा अपनी आजीविका चलाती रही बुंदेला और मराठा काल में अपने समय की यह कोटपाल जाति स्थानीय शासकों की सहमति से नगर में कोतवाल और ग्राम में कोटवार का दायित्व सम्हालती रही ....!!
              1857 ई• की क्रांति में खंगारों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और वे अंग्रेजों की आँखों की किरकिरी बन गए ! ब्रिटिश राज में जब स्थानीय बंदोबस्त की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तब अंग्रेजों ने गाँव गाँव में क्रांतिकारी जातियों की निगरानी के लिए इन्ही की जाति के चौकीदारों को अधिनियमित किया ! बुंदेलखंड में भी कांटे से कांटा निकालने की सोच के साथ अंग्रेजों ने खंगारों के हाथ में खंगारों की निगरानी सौंप दी और उन्हें 1861 के पुलिस अधिनियम द्वारा अधिनियमित कर दिया किन्तु अंग्रेजों का खंगारों पर यह प्रयोग सफल नही हुआ शासन के खिलाफ खंगारों का विद्रोह और अधिक सशक्त हो गया ! खंगार चौकीदार ब्रिटिश शासन की बजाय स्वजातीय क्रांतिकारियों के प्रति अत्यधिक बफादार थे जो अंग्रेजों की नजर में चोर बदमाश थे और शासन को अस्थिर करने  में लगे हुए थे ....!!
             सन् 1871 में स्थानीय ब्रिटिश कमिश्नर ने बड़ी संख्या में खंगार चौकीदारों को शासन के खिलाफ अपराधों में संलिप्त पाये जाने की रिपोर्ट भेजते हुए उन्हें न केवल चौकीदारी से अपदस्थ किया बल्कि विविध अपराधों में उनको जेल भी भेज गया District gazetteer Jalaun के अनुसार 1871 में खंगारों को विलेज पुलिस ऑफिस से अपदस्थ कर दिया गया और 21 खंगार चौकीदारों को विविध अपराधों में दण्डित किया गया इसी घटना के हवाले से तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारी EDWIN T. ATKINSON ने Statistical Descriptive account of the North Western provinces of India में लिखा कि इस दौरान जालौन जिले में चार हत्या , एक लूट , 459 गृह अतिचार और 490 चोरियां हुयीं जिनके लिए 699 लोगों का परिक्षण हुआ जिनमे से 448 को सजा मिली , डिवीज़न कमिश्नर ने विलेज वॉचमैन को अविश्वसनीय मानते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा कि "बहुतायत में चोरी की घटनाएं या तो उन्ही चौकीदारों द्वारा अथवा इन्ही के द्वारा योजित की गयीं हैं और जिन अपराधियों को सजा मिली है उनमे से ज्यादातर खंगार जाति से ही सम्बंधित हैं जो कि आपराधिक गतिविधियों के लिए दर्ज हैं ".......!
                         खंगारों को चौकीदारी से अपदस्थ करने के बाद अंग्रेजों के समक्ष इस पद को भरे जाने की समस्या खड़ी हो गयी क्योंकि कोई भी जाति खंगारों की जगह ले पाने में सक्षम नही थी हालांकि बाद में इस पोस्ट पर  खंगारों के साथ अन्य जातियों के पदस्थ होने की पुष्टि जालौन गजेटियर करता है !  
             इसी दौरान झाँसी जनपद में भी विलेज पुलिस की स्थापना हुयी किन्तु जालौन जिले के कटु अनुभवों और खंगारों की दुस्साहसिक गतिविधियों से छड़के हुए अंग्रेज खंगारों को चौकीदारी के लिए अधिनियमित करने के उपयुक्त नही समझ रहे थे ! कमिश्नर की धारणा थी कि खंगार यहाँ भी जालौन की तरह ही अविश्वसनीय होंगे किन्तु स्थानीय प्रशासकों का दावा था कि खासतौर पर खंगार ही इस पद की जिम्मेवारी को वहन करने के योग्य हैं वे इस परम्परागत पेशे को अंगीकृत किये हुए हैं और वे ही इसे सम्हालने में सक्षम हैं ! कदाचित आगे स्थानीय प्रशासकों की अनुशंसा पर ही खंगार इस पद पर अधिनियमित हुए ! 1909 में प्रकाशित झाँसी गजेटियर में खंगारों के बारे में दर्ज है कि "इस जाति के लोगों की संख्या 9077 है जो पुरे जिले में बिखरे हुए हैं परंपरागत स्त्रोतो से यह बहुत ही रोचक है कि एक समय झाँसी और हमीरपुर सहित एक वृहद भूभाग पर खंगारों का शासन था इस कुल का मुख्यालय गढ़ कुंडार था जो कि अब ओरछा रियासत में स्थित है और खंगार राजा जिन्होंने चंदेल सत्ता के विखंडित होने के पश्चात् अपनी सत्ता स्थापित की अपने को राजपूत कहते हैं आजकल उनकी सामाजिक दशा निम्नतर है और वे बड़ी संख्या में चौकीदार पदस्थ हैं चौकीदारी के मामले में वे बाँदा के अरख और अवध के पासी सरीखी स्थिति रखते हैं " ..........यहाँ यह गौर तलब है कि अबध के पासी और बाँदा के अरख भी अपने अपने क्षेत्र में परंपरागत चौकीदारी और क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए प्रख्यात रहे हैं खंगारों की तरह ही इनको भी क्रन्तिकारी गतिविधियों के लिए अंग्रेजो ने ज़रायम पेशा जातियों (criminal tribes) में अंकित किया ! खंगारों की तरह पासियों का भी सुदूर अतीत में शासन करना ज्ञात होता है बाँदा और अवध गजेटियर अरख और पासियों को प्राथमिक तौर पर चौकीदार होना स्वीकार करते हैं ! बाँदा गजेटियर के अनुसार 1909 में बाँदा जिले में अरखों की संख्या 18909 थी अरख खेतिहरों के मातहत जाति थी वे गाँव के परंपरागत चौकीदार हैं और खंगार जो झाँसी जालौन और हमीरपुर के वृहद् भाग में चौकीदारी में उनके सामान हैं उनकी शाखा की तरह स्वीकार किये जाते हैं !
                      हमीरपुर के बारे में लिखते हुए EDWIN T . ATKINSON ने उल्लेख किया कि "खंगार शूद्रों में शामिल नहीं हैं .......प्राथमिक तौर पर खंगार ही चौकीदार थे बाद में अन्य जातियाँ शामिल की गयीं चौकीदार आपराधिक कृत्यों के लिए बदनाम हैं जिस बदनामी से वे आज तक जकड़े हुए हैं .......लेकिन चौकीदार के तौर पर वे नियमानुसार अच्छे और योग्य व्यक्ति हैं उनमे अच्छे पुलिस की पात्रता है और वास्तव में अपनी वर्त्तमान अधीनस्थ क्षमतानुसार वे सच्चे पुलिस या सिपाही हैं " वह आगे उद्धृत करता है कि एक समय खंगारों ने अपनी ताकत के बल पर अथवा शासकों की सहमति से खुद को इस क्षेत्र में प्रथम स्थान पर स्थापित कर लिया था एक मान्यता के अनुसार खंगार महोबा के उपप्रशासक रहे हैं"........!! 
                                कोटवार मूलतः कोटपाल से जन्मा शब्द है जो कि आजकल मध्य प्रदेश पुलिस व्यवस्था में चौकीदार के लिए प्रयुक्त होता है , कोटपाल से ही कोतवाल शब्द की भी उत्पत्ति हुई कोतवाल नगर प्रशासन और कोटवार ग्रामीण प्रशासन की महत्वपूर्ण इकाई थे दोनों ही व्यवस्थाओं पर बुंदेलखंड में खंगार आरूढ़ थे  ! पुलिस प्रशासनिक व्यवस्था में कोटपाल के कोतवाल ने  तो अपना रसूख बरक़रार रखा लेकिन कोटवार प्रशासन के सबसे निचले पायदान पर सिमट कर रह गया ! ETHNOGRAPHY (1912) में भारत के चौकीदारों (watchman)विश्लेषण करते  हुए लेखक Sir Athelstane baines लिखता है कि  "बुंदेलखंड में खंगार जाति अपने आत्मविश्वास और क्षमता के कारण चौकीदारी में आये निस्संदेह खंगार विंध्यांचल की मूलनिवासी जाति है जिनका राजपूतों से संपर्क के कारण ब्राह्मणीकरण हुआ और वे चौकीदार और कोतवाल के रूप में भी जनगणना में दर्ज हुए किन्तु वे अन्य स्थानों की चौकीदार जातियों से सम्बंधित नहीं हैं .....!
                      वरिष्ठ पत्रकार "अजीत वडनेरकर" ने अपने स्थाई स्तम्भ "शब्दों का सफ़र" में " गरीब कोटवार - अमीर कोतवाल" लेख के माध्यम से चौकीदार पर प्रकाश डालते हुए चौकीदारों को वनवासी क्षत्रिय जाति निरूपित किया उन्होंने आगे लिखा कि यह दिलचस्प बात है कि एक ही मूल से बने कोतवाल और कोटवार जैसे शब्दों कोटपाल से कोतवाल बनने के बाबजूद भी रसूख कायम रहा जबकि कोटवार की इतनी अवनति हुई कि वह पुलिस प्रशासनिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान का कर्मचारी बनकर रह गया !
                           आज भी खंगार ही बुंदेलखंड के अधिकांश ग्रामों में चौकीदारी में सलंग्न हैं उनकी मासिक पगार बहुत ही कम है इस कारण उनकी सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक दशा बहुत ही दयनीय है देश धर्म की खातिर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले क्रांतिकारियों की यह पीढ़ी आज भी उपेक्षित है बुंदेलखंड के इस वंचित वर्ग के समग्र विकास के लिए सरकारों को बड़े कदम उठाने की जरुरत है पर गरीब दलित और वंचितों की बात करने वाली सरकारों के कदम पता नही क्यों नही उठते और उठेंगे भी तो कब उठेंगे कुछ कहा नही जा सकता ..............!!
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ब-कलम
अशोक सूर्यवेदी एडवोकेट 
मऊरानीपुर झाँसी (यूपी)
मो. 9450040227
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Friday, January 8, 2016

क्रान्तिकारी नट

नट

नट (अंग्रेजी : Nat caste) उत्तर भारत में हिन्दू धर्म को मानने वाली एक जाति है जिसके पुरुष लोग प्राय: बाज़ीगरी या कलाबाज़ी और गाने-बजाने का कार्य करते हैं तथा उनकी स्त्रियाँ नाचने व गाने का कार्य करती हैं। इस जाति को भारत सरकार ने संविधान में अनुसूचित जाति के अन्तर्गत शामिल कर लिया है ताकि समाज के अन्दर उन्हें शिक्षा आदि के विशेष अधिकार देकर आगे बढाया जा सके। बुंदेलखंड में नट जाति अपने साहसिक कारनामों के लिए प्रख्यात रही है 1857 की क्रांति में नटों ने खंगारों के साथ राजा मर्दन सिंह के अभियान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया इस कारण नट भी अंग्रेजों की नजर में खंगारों की भाँति खटक गए और अंग्रेजी हुकूमत ने उनके दमन के लिए 1871 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाकर नटों को भी ज़रायम पेशा घोषित किया बुंदेलखंडी में इन जातियों के दुस्साहसिक कारनामों को इंगित करती एक कहावत मशहूर है "कुत्ता बिल्ली बन्दर - नट खंगार और कंजर"
!
नट शब्द का एक अर्थ नृत्य या नाटक (अभिनय) करना भी है। सम्भवत: इस जाति के लोगों की इसी विशेषता के कारण उन्हें समाज में यह नाम दिया गया होगा। कहीं कहीं इन्हें बाज़ीगर या कलाबाज़ भी कहते हैं। शरीर के अंग-प्रत्यंग को लचीला बनाकर भिन्न मुद्राओं में प्रदर्शित करते हुए जनता का मनोरंजन करना ही इनका मुख्य पेशा है। इनकी स्त्रियाँ खूबसूरत होने के साथ साथ हाव-भाव प्रदर्शन करके नृत्य वगायन में काफी प्रवीण होती हैं।
नटों में प्रमुख रूप से दो उपजातियाँ हैं-बजनिया नट और ब्रजवासी नट। बजनिया नट प्राय: बाज़ीगरी या
कलाबाज़ी और गाने-बजाने का कार्य करते हैं जबकि
ब्रजवासी नटों में स्त्रियाँ नर्तकी के रूप में नाचने-गाने का कार्य करती हैं और उनके पुरुष या पति उनके साथ साजिन्दे ( वाद्य यन्त्र बजाने) का कार्य करते हैं।