क्यों राघव क्यों ?
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गए छोड़ सौमित्र विकट वन में सीता की तन्द्रा जागी !
यह कैसा निर्णय लिया राम ने खुद से पूंछ रही वह राज्ञी !
राम ! तुम राजा जन जन के मन के अनुरागी !
मैं प्रिय प्रिया तुम्हारी फिर भी किंचित रही अभागी !
ओ मानस मर्यादा के नव सोपान बनाने बाले राम !
क्या तुम्हारा नारी चिंतन भी यूँ ही रहा मिसाले आम.
अवध पति ! तुम न्यायमूर्ति थे न्यायिक पद पर विद्यमान !
यह आक्षेप सहा तुमने क्या अग्नि परीक्षा से अंजान ?
वादी ने कहा सुना तुमने निर्णय भी आप ही दे डाला ?
मुलजिम को सुने बिना ही राजन वनवास निकाला !
मुलजिम को ना सुनने की प्रजापति कुछ लाचारी थी ?
या वादी की प्रतिक्रिया स्वामी विश्वासों पर भारी थी ?
चित्रकूट की कुटिया में साथ तुम्हारे सुख ही पाया !
और विछुड़ कर तुमसे अशोक वाटिका स्वर्णपुरी में दुःख ही पाया !
तब मजबूरी में सहा वियोग तुम मेरी खातिर भटके वन में !
ओ निष्कासित करने वाले! खो दी क्या? जो थी प्रीत तुम्हारे मन में !
मैं धरती की बिटिया शायद वनवास भाग्य लिखा लाई!
यह क्लेश ना मुझको किंचित तुम साक्षी हो रघुराई !
राम राज्य में रानी भी जब घोर उपेक्षा की भोगी .
यही कष्ट है मुझे अवध में नारी की क्या गति होगी .
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रचना :-
अशोक सूर्यवेदी एडवोकेट
मऊरानीपुर