अपनी पहली सफलता से उत्साहित दोनों मित्रों ने न केवल इस कारगुजारी को अपना व्यवसाय बनाया बल्कि अपने गाँव ररुआ में इस कौशल को सिखाने के लिए एक निजी संस्थान की स्थापना भी की जहाँ उठाईगिरी को एक कला के रूप में विकसित किया गया छोटे बच्चों को दिन में चीजों को उठाने की कला सिखायी जाने लगी ! प्रवेश के समय विद्यार्थियों को चंद्रमा की शपथ दिलायी जाती थी कि वे कभी भी रात में या कि चंद्रमा की उपस्थिति में चौरकर्म नही करेंगे कदाचित उनका विश्वास था कि यह एक कला है जिसका प्रदर्शन वे सिर्फ दिन के समय जागृत लोगों के समक्ष ही करेंगे अन्यथा नही ! जब उनकी कीर्ति बढ़ी और यह चर्चा दतिया महाराज भवानी सिंह के कानों तक पहुंची तब उन्होंने खुद जाकर इस संस्थान का निरीक्षण किया और पाया कि इस संस्थान में राष्ट्रभक्ति की धारा प्रवाहित हो रही है और ये लोग वास्तविक अर्थों में राज्य के लिए सच्चे वफादार और फायदेमंद लोग हैं दतिया महाराज संस्थान के साधकों से इस क़दर प्रभावित थे कि वे उन्हें सालाना आयोजित होने वाले दिल्ली दरबार में यात्रा के दौरान अपनी और अपनी संपत्ति के सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में साथ ले कर गए , संस्थान के इन साधकों ने अपने उत्तरदायित्व का बड़ी जिम्मेवारी से निर्वहन किया कि जब "दरबार" में यह सवाल उठा कि विभिन्न राज्यों में किस वर्ग के लोग राज्य के प्रति सबसे वफादार और लाभदायक हैं तो दतिया महाराज ने न केवल रामलाल और मदन प्रसाद के अनुयायियों का नाम लिया वर्न राज्य के प्रति उनकी सेवा समर्पण और बफादारी की मिसालें भी पेश कीं चर्चा के दौरान रामलाल और मदन प्रसाद के अनुयायियों के सरोकार और कार्यव्यवहार के कारण प्रथम बार उन्हें चंद्रवेदी नाम दिया गया ! चंद्रवेदी कहलाने के पूर्व ये लोग मदन प्रसाद और रामलाल के कुलनाम सनौरिया से जाने जाते थे , सनौरिया ब्राह्मणों की एक शाखा होती है और खंगारों की भी एक शाखा सनौरिया कहलाती है अतः रामलाल और मदन प्रसाद किस जाति के थे यह दृढ़ता पूर्वक कभी नही कहा जा सका !कुछ विद्वानों ने सनौरिया को ब्राह्मण और कुछ ने ठाकुर की उपशाखा भी माना ! हालाँकि सनौरिया जो बाद में चंद्रवेदी कहलाये किसी एक जाति का नही बल्कि चमार और मेंहतर के अतिरिक्त बुंदेलखंड की तमाम स्थानीय जातियों का संगठित गिरोह था ! जिनमें खंगार , सुनार , लोधी, सनौरिया ब्राह्मण , कायस्थ , काछी और गडरिया आदि जातियों के लोग शामिल थे ! चंद्रवेदी लंबे अरसे तक एक जाति के रूप में भले ही पहचाने गए लेकिन वे आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नही करते थे हालाँकि गिरोह के अन्य साथियों के वैवाहिक कार्यक्रमों में वे सक्रिय भागीदार होते थे !
Tuesday, March 14, 2017
बुंदेलखंड के चंद्रवेदी
अपनी पहली सफलता से उत्साहित दोनों मित्रों ने न केवल इस कारगुजारी को अपना व्यवसाय बनाया बल्कि अपने गाँव ररुआ में इस कौशल को सिखाने के लिए एक निजी संस्थान की स्थापना भी की जहाँ उठाईगिरी को एक कला के रूप में विकसित किया गया छोटे बच्चों को दिन में चीजों को उठाने की कला सिखायी जाने लगी ! प्रवेश के समय विद्यार्थियों को चंद्रमा की शपथ दिलायी जाती थी कि वे कभी भी रात में या कि चंद्रमा की उपस्थिति में चौरकर्म नही करेंगे कदाचित उनका विश्वास था कि यह एक कला है जिसका प्रदर्शन वे सिर्फ दिन के समय जागृत लोगों के समक्ष ही करेंगे अन्यथा नही ! जब उनकी कीर्ति बढ़ी और यह चर्चा दतिया महाराज भवानी सिंह के कानों तक पहुंची तब उन्होंने खुद जाकर इस संस्थान का निरीक्षण किया और पाया कि इस संस्थान में राष्ट्रभक्ति की धारा प्रवाहित हो रही है और ये लोग वास्तविक अर्थों में राज्य के लिए सच्चे वफादार और फायदेमंद लोग हैं दतिया महाराज संस्थान के साधकों से इस क़दर प्रभावित थे कि वे उन्हें सालाना आयोजित होने वाले दिल्ली दरबार में यात्रा के दौरान अपनी और अपनी संपत्ति के सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में साथ ले कर गए , संस्थान के इन साधकों ने अपने उत्तरदायित्व का बड़ी जिम्मेवारी से निर्वहन किया कि जब "दरबार" में यह सवाल उठा कि विभिन्न राज्यों में किस वर्ग के लोग राज्य के प्रति सबसे वफादार और लाभदायक हैं तो दतिया महाराज ने न केवल रामलाल और मदन प्रसाद के अनुयायियों का नाम लिया वर्न राज्य के प्रति उनकी सेवा समर्पण और बफादारी की मिसालें भी पेश कीं चर्चा के दौरान रामलाल और मदन प्रसाद के अनुयायियों के सरोकार और कार्यव्यवहार के कारण प्रथम बार उन्हें चंद्रवेदी नाम दिया गया ! चंद्रवेदी कहलाने के पूर्व ये लोग मदन प्रसाद और रामलाल के कुलनाम सनौरिया से जाने जाते थे , सनौरिया ब्राह्मणों की एक शाखा होती है और खंगारों की भी एक शाखा सनौरिया कहलाती है अतः रामलाल और मदन प्रसाद किस जाति के थे यह दृढ़ता पूर्वक कभी नही कहा जा सका !कुछ विद्वानों ने सनौरिया को ब्राह्मण और कुछ ने ठाकुर की उपशाखा भी माना ! हालाँकि सनौरिया जो बाद में चंद्रवेदी कहलाये किसी एक जाति का नही बल्कि चमार और मेंहतर के अतिरिक्त बुंदेलखंड की तमाम स्थानीय जातियों का संगठित गिरोह था ! जिनमें खंगार , सुनार , लोधी, सनौरिया ब्राह्मण , कायस्थ , काछी और गडरिया आदि जातियों के लोग शामिल थे ! चंद्रवेदी लंबे अरसे तक एक जाति के रूप में भले ही पहचाने गए लेकिन वे आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नही करते थे हालाँकि गिरोह के अन्य साथियों के वैवाहिक कार्यक्रमों में वे सक्रिय भागीदार होते थे !
Monday, November 14, 2016
एटीएम और शादी
रविवार को दोनों की ऑफिस की छुट्टी थी। विकास जब सुबह 6 बजे ATM पंहुचा तो इसका नंबर था 80 और उसके ठीक पीछे राधा 81वें नंबर पर खड़ी थी। टाइम पास करने के लिए विकास कानो में इयरफोन लगा कर गाने सुन रहा था और राधा अपने मोबाइल पर नागिन सीरियल देख रही थी।
लाइन खिसक कर जब दोनों 65-66 नंबर पर पहुचे तभी राधा के मोबाईल की बैटरी ख़त्म हो गयी और उसका मोबाइल बंद हो गया। विकास अभी भी मजे से इयरफोन कानो में लगाए मजे से गाने सुनने में व्यस्त था। राधा ने धीरे से विकास से कहा- ‘एक्सक्यूज़ मी! क्या आप इयरफोन पे मुझे भी गाने सुनवाएँगे? विकास ने शर्माते हुए कहा- क्यों नहीं और इयरफोन का एक पीस उसकी तरफ बढ़ा दिया।
गाने सुनते सुनाते दोनों 50-51 वें नंबर पर पहुचे तभी विकास का मोबाईल भी डिस्चार्ज हो कर बंद हो गया।
राधा ने विकास से पूछा -आप कहाँ के रहने वाले हो?
विकास – पटना । और आप ?
राधा – धनबाद।
बातें करते करते दोनों 30-29 वें नंबर पर पहुंचे तब तक विकास और राधा 36 गुण और पसंद -नापसंद मिल चुके थे। विकास ने शर्माते और झिझकते हुए अपनी जेब में बचे हुए 10 का नोट निकाला और उस पर ‘I Love You राधा‘ लिख कर राधा के हाथ में थमा दिया। राधा ने घूरते हुए विकास को देखा और उसके गले लग पड़ी।
लाइन में लगे एक पंडित ने अपने पोथी में देखा और चिल्लाते हुए कहा- अद्भुत! ऐसा शुभ मुर्हत तो कई सालों बाद आया है। लोगों के जोर देने पर पंडित ने मंत्रोच्चारण शुरू किया । विकास और राधा ने ATM के 7 चक्कर लगा कर अपने फेरे पुरे किये। लाइन में लगे लोगों ने अपनी अपनी जेब से 10-10 नोट शगुन में देना शुरू कर दिया तब तक दोनों लाइन में 2-3 नंबर पर पहुच चुके थे।
तभी अंदर से निकल कर एक लड़की ने कहा – ATM में कैश ख़त्म हो गया है। फिर विकास और राधा अपने हनीमून ट्रिप पर दूसरे ATM में पैसे ढूंढने निकल पड़े .............
Saturday, November 5, 2016
Friday, July 8, 2016
संस्कृताइजेशन
बात उन दिनों की है जब बुंदेलखंड में छुआछुत का ज बोलबाला था , बुंदेलखंड ही क्या पूरा देश इस व्याधि से पीड़ित था आदमी आदमी में जबरजस्त फर्क था वैदिक वर्ण व्यवस्था का स्थान ऊँच नीच में बदल गया था कथित ऊँचे लोगों को नीचे लोगों की परछांई भी अपवित्र कर देती थी , बेचारे निचले तबके के लोग अपने गले में हांडी और पिछवाड़े में झाड़ू लटकाकर चलने पर विवश थे ! हांडी इसलिए कि उनका थूंक पवित्र मार्ग को अपवित्र न कर दे और झाड़ू इसलिए कि उनके स्पर्श से अपवित्र हो रही सड़क पीछे पीछे आप ही पवित्र होती जाये | उच्चवर्णीय लोगों ने पता नही कहाँ से यह सिद्धांत गढ़ रखा था कि "शूद्र के कान में यदि वेद वाक्य पड़ जाये तो उसके कान में सीसा गर्म करके उड़ेल दो" बेचारे निम्नवर्णी गरीब कथित कुलीनों की दया पर निर्भर थे हांड़ी से थूंक छलक जाये या फिर पिछवाड़े की झाड़ू ऊँची हो जाये तो जान के लाले पड़ जाते थे |
ऐसे ही विकट समय में परम्परागत तरीकों से गाँव में एक धोबी अपना जीवन यापन करता था | धोबी की स्त्री अर्सा बीते एकमात्र पुत्री रूपा को छोड़कर गुजर गयी , पुत्री के लिए धोबी ने सौतेली माँ स्वीकार न की और स्वयं ही मनोयोग से पुत्री का पालन पोषण करता रहा | जब पुत्री अपनी आयु को प्राप्त हुई तो उसके हाथ में गजब का रसायन आया और रूपा का रूप लावण्य भी चरमरा कर उभरा , धोबी कन्या के हाथ पीले कर अपना कर्तव्य पूर्ण कर पाता इसके पहले ही ईश्वर का बुलावा आ गया इधर धोबी राम को प्यारा हुआ और उधर रूपा पर विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा | धोबिन की परछांई से भी जो लोग अपवित्र होते जाते थे आज वे ही उसके साथ एकांत भोगने को लालायित दिखने लगे , कदाचित भद्रों की वासना एकांत में शूद्र स्त्रियों के शरीर में समाने में कोई छूत नही मानती | रूपा का गाँव में जब कथित बड़ी जाति के लोगों के छोटे आचरणों से जीना ही मुहाल हो गया तब अकेली रूपा अपने रूप लावण्य की विरासत बचाने एक रोज रात के चौथे पहर के पहले ही घर गाँव को प्रणाम कर निकल पड़ी और भोर होते होते गाँव से काफी दूर निकल गयी , एक नए जीवन की तलाश में आशा भरी निगाहों से उम्मीदों की डगर नापती रूपा ने बड़े नगर में प्रवेश किया , यहाँ गाँव के जैसी संकीर्णता न थी पर जाति का जहर तो हर कहीं विद्यमान था | गरीब रूपा पर भले लोगों की नजर पड़ी रंग रूप से रूपा ब्राह्मण कन्या सी प्रतीत होती थी सो एक सहृदय धनिक ने उसे अपने घर में चौका चूल्हा सम्हालने के लिए रख लिया , रूपा ने लोगों के अंदाज के अनुरूप खुद को दीन ब्राह्मण कन्या के तौर पर स्वीकार कर लिया और धोबिन होने को हृदय में गहरे दफ़न कर मनोयोग से अपने नियोक्ता की सेवा में खपा सुख से जीवन बसर करने लगी !
दूर कहीं किसी गाँव में एक सिद्दर नाम का कसाई रहता था | गौरवर्ण सिद्दर का नाम उसके माँ बाप ने श्रीधर रखा था किन्तु कसाई के बेटे को श्रीधर भला कौन कहता ? बेचारा श्रीधर सिद्दर ही स्वीकार किया गया , सिद्दर का गौरवर्ण भी लोगों को फूटी आँख न सुहाता पर उसके रंग पर उस बेचारे का क्या वश था | सिद्दर को पता नही कहाँ से भागवत कथा का ज्ञान प्रकट हो गया और वो मँजरे में कसाईयों को कथा सुनाने लगा | "सिद्दर कसाई भागवत कहता है" जब यह खबर गाँव में फैली तो कथित कुलीनों का पारा चढ़ गया , कसाई ने कथा में सेंधमारी की कथा के ठेकेदार कसाई को जान से मारने के लिए दौड़ पड़े | सिद्दर कसाई भी जान बचाने के लिए गाँव घर द्वार छोड़कर दे भागा नियति का मारा सिद्दर भी वहीं जा पहुंचा जहाँ पंडितानी बनी धोबिन धनिक के घर का चूल्हा चौका कर अपनी गुजर बसर कर रही थी | सिद्दर कसाई दूध में केशर मिले गौर वर्ण का था सुरीला कंठ और मवाणी के सिद्दर यहाँ श्रीधर आचार्य होकर सुपूजित हुए और कथावार्ता का उनका धंधा यहाँ चल पड़ा | लोगों की नजर में सिद्दर अनाथ ब्राह्मण था जिसके आगे पीछे कोई न था भले लोगों ने श्रीधर आचार्य और रूपा का घर बसाने का मन बनाया "एक को और नही और दूजे को ठौर नही" सो भले लोगों के तनिक प्रयास से दोनों ब्राह्मणवेशी जातकों की जोड़ी जम गयी |
रूपा की अपनी घर गृहस्थी और श्रीधर आचार्य का अपना घर परिवार सामाजिक मान्यता प्राप्त ब्राह्मण दंपत्ति की घर गृहस्थी भगवत्प्रेमियों के सहारे चल पड़ी | एकांत के क्षणों में दोनों एक दूसरे की हकीकत से वाकिफ हुए लेकिन जीने के लिए अतीत को दफन करना जरुरी था सो पंडिताई का आवरण कभी न हटाने का संकल्प साध लिया | आचार्य श्रीधर कथा भागवत करके धन सम्मान अर्जित करते और रूपा सुघड़ स्त्री की तरह घर गृहस्थी सहेजती | समय बीता और ब्राह्मणवेशी दंपत्ति को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई हर्षित दंपत्ति ने पुत्र का नाम रखा "गजाधर" ...| गजाधर मान्यताप्राप्त कुलीन घर में जन्मा था इसलिए उसे श्रीधर से सिद्दर नही होना पड़ा वह गजाधर ही रहा | माता पिता का सौंदर्य , विनम्रता और वाक्पटुता गजाधर को विरासत में प्राप्त हुयी थी | गजाधर जब सयाने हुए तो आचार्य श्रीधर ने उन्हें पंडिताई पढ़ने बनारस पंडित ब्रह्मदत्त शास्त्री की विद्यापीठ भेज दिया , गजाधर ने मनोयोग से पूरी लग्न और निष्ठा के साथ गुरुजी की सेवा करते हुए बनारस में अध्ययन किया , मेधावी गजाधर शीघ्र ही संगीत और शास्त्र में निपुण शास्त्री हुआ उसके गुरु भी गजाधर जैसा शिष्य पाकर गौरवान्वित थे ! पंडित ब्रह्मदत्त शास्त्री रसिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे और उन्होंने गृहस्थी से दूर एक वैश्या रख छोड़ी थी , उस वैश्या से उन्हें एक सुन्दर कन्या तारा प्राप्त हुई थी जिसे वे किसी भी पिता की भांति सुयोग्य हाथों में सौपना चाहते थे , अपने ही शिष्य गजाधर में उन्हें वह सुपात्र नजर आया और उन्होंने अधिकार पूर्वक गजाधर और अपनी पुत्री तारा का पाणिग्रहण संपन्न करा दिया , गजाधर शास्त्री भी गुरुपुत्री का वरण कर प्रसन्न भाव से अपनी पत्नी को लेकर अपने माता पिता के पास लौट आया | हर्षित महतारी ने पुत्रबधू के स्वागत में मंगलगान करवाये , नजर उतारी और सभी शुभचिंतकों को भोज कराया | नेगाचार के उपरान्त शीघ्र ही बहू घर की जिम्मेवारी सम्हाल सास ससुर की सेवा के लिए तत्पर हुई किन्तु सास ससुर उसकी सेवा से बचते बचाते दिखाई देने लगे , बहू पैर छूने को झुके तो सास ससुर बस बस कर बचने लगें , बहू को झूठी थाली धोने को न छोड़ें सेवा टहल के सभी कर्मों से बहू को वंचित करने का प्रयास तारा को समझ न आता बेचारी समझती भी कैसे अभी अभी तो गृहस्थी में शामिल हुई थी | वह सास ससुर के बर्ताव के लिए खुद को दोषी मान अपनी ही गलती ढूंढने का प्रयास करने लगी | तारा के सभी प्रयास बिफल हुए तो हठ पर उतर आई और एक दिन सास ससुर के सामने सेवा को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गयी , सास ससुर ने बहुत समझाया पर बहू ने अन्न का दाना भी मुँह में न दिया तब श्रीधर आचार्य ने बहू पर अपने कसाई होने और रूपा के धोबिन होने का राज खोलते हुए कहा बेटा तुम ब्राह्मणकन्या हो तुम से सेवा सुश्रूषा कराकर हम नरक के गामी नही होना चाहते ! तारा ने भी सास ससुर के सम्मुख खुद के वैश्यापुत्री होने का राज खोलते हुए कहा कि मुझे अपनी सेवा से वंचित न करें तीनों ब्राह्मणवेशी सास ससुर और बहू अब प्रसन्न थे और गजाधर शास्त्री अपने कमरे में से गा रहे थे :-
माता धोबिन बाप कसाई ,और जा वैश्या की जाई ,
गजाधर तीनों की बन आई ,गजाधर तीनों की बन आई !!
ब कलम
अशोक सूर्यवेदी
Monday, April 11, 2016
रा' खंगार और सिद्धराज
वैभवशाली सोरठ का माननीय राणा था नवघन , किन्तु सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के विरोध के चलते न केवल उसे नाकों चने चबाने पड़े बल्कि अपनी निष्कृति हेतु दांतों से तिनका भी उठाना पड़ा ! वीर पुरुष अपमान से मृत्यु को श्रेष्ठ मानते हैं तो भी सिद्धराज से बदला लेने की आस में नवघन जीता रहा किन्तु सिद्धराज के इस शत्रु की आस पूरी न हो सकी और उसका अंतिम समय आ गया , तब उसने अपने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा :- सुनो क्षत्रियों को उत्तराधिकार में अपने पूर्वजों का बैर भी लेना पड़ता है , तुममें से जो भी कोई सिद्धराज से मेरा प्रतिशोध ले सके वह मेरा सिंहासन ले ले "!
सिद्धराज से जूझना आसान तो न था सो चारों पुत्र खामोश ही रहे , देर होती देख नवघन ने फिर कहा "मैं पाटन के तोरण कपाट अपने बल से जूनागढ़ में लाकर लगाना चाहता था , वह दिन तो आया नही किन्तु मृत्यु का दिन आ गया जीते जी मेरी अभिलाषा तो पूर्ण हुई नही मेरी मृत्यु भी निराशापूर्ण ही रही " पुत्रों के होंठ तो फड़के किन्तु बात अधरों से बाहर न आई पिता की ओर देखकर चारों ने तुरन्त ही सिर नीचे झुका लिए ! युवराज महिपाल का पुत्र खंगार भी खड़ा था पास ही उसने आगे बढ़कर कहा "राजपाठ तो पिता लें यह ठीक है किन्तु आपका यह दास आपका वैर ग्रहण करेगा आप शांति धारण करें क्रांति का जिम्मा मेरे सिर रहा" नाती की बात सुनकर बृद्ध राणा का मुरझाया चेहरा एक बार फिर दमक उठा "तू ही मेरे राज्य का योग्य उत्तराधिकारी है बेटा , तूने मेरी मृत्यु को सुखमय बना दिया" यह कहकर राणा परलोक को सिधार गया !
युवराज महिपाल ने अपने पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए अपने पुत्र के लिए राजपाठ छोड़ दिया , खंगार ने अपने पितामह की आज्ञा में उनके शत्रु सिद्धराज से प्रतिशोध लेने के लिए राजसत्ता सम्हाल ली ! नवघन का नाती खंगार निर्भय और साहसी था उसमे अंगार के समान तेज व्याप्त था , वह सामर्थ्यवान सिद्धराज से प्रतिशोध लेने के उपाय तलाशने लगा , किसी का हित करना किसी के लिए कठिन कार्य है किन्तु किसी का अहित करना सभी के लिए सुलभ है !
कहा जाता है कि सिन्धुराज की पुत्री जो स्वयं रत्नरूपा थी उसके लिए ज्योतिषियों ने ऐसे ग्रहदोष बताये थे कि यह कन्या जहाँ भी रहेगी नागिन की तरह उस घर के कुलदीपक बुझा लेगी ! सिद्धराज उस कन्या के पिता ही न थे वे राजा भी थे अतः उन्होंने अपनी उस प्राण-प्रतिमा को वन में विसर्जित कर दिया !
वन में वह कन्या एक निःसंतान कुम्भकार दम्पत्ति को मिली जिन्होंने बड़े ही लाड़प्यार से उस राजलली का पालन किया देवी सी रूपणी उस कन्या का नाम राणक दे रखा ! शिशु प्रेम से ही नही चाव से पाले जाते हैं , जो हाथ मिट्टी को आकर देकर स्वर्ण बना देने का काज करते हों वे हाथ भला प्राणाधिक प्रिय कन्या को सँवारने में क्या कसर छोड़ते .....कुंभकार दम्पति के हाथों में राणक दे की गुणगरिमा विकसित होने लगी ! जब वह रूपसी अपने यौवन को प्राप्त हुई तब उस हेमनलिनी की चर्चा चारों ओर चलने लगी , उस के रूप गुण की गंध पाकर सिद्धराज जय सिंह भी आखेट के बहाने राणक दे को पाने की अभिलाषा अपने मन में लिए उसकी सीमा तक आया !
जैसे ही यह समाचार खंगार को मिला तो गर्वीले गिरनार का वह सिंह प्रतिशोध का अवसर उपस्थित जान बीच में ही कूँद पड़ा ! कुम्भकार के घर रात में उपस्थित हो खंगार ने राणक दे से प्रणय निवेदन किया और अपने कुम्भकार माता पिता की सम्मति राणक ने रा' खंगार का वरण किया ! नव दंपत्ति के नयनों में प्रेमअश्रु और होंठों पर विजयी मुस्कान थी , जैसे सृष्टि में ओस भरे दो फूल खिले हों ! राणक दे और रा' खंगार के मिलन से वायुमंडल महक उठा !
उधर राणक दे रा खंगार की परिणीता हुई और इधर सुनकर सिद्धराज की छाती धधक गयी , उसके हृदय पर भयंकर बज्रपात हुआ उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो पाटन की पटरानी को खंगार ने हर लिया हो दग्ध हृदय से उसने प्रतिज्ञा ली कि "अब धरा पर या तो खंगार ही रहेगा या सिद्धराज".....!!
सिद्धराज को अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने में उसे 15 वर्ष लगे इन 15 बर्षों में वह बराबर खंगार से मुँह की खाता रहा और खंगार ने अपने पितामह के प्रणों को पूर्ण किया ! सिद्धराज और खंगार दोनों ही अपने अपने प्रणों के परायण को उद्दत थे , खंगार अपने शत्रु से भागभंग और रानी से रागरंग एक सी उमंग में निभा रहा था इस दौरान राणक दे और खंगार के निश्छल प्रेम से दो नवांकुर सोरठ के महल में पनपे !
जूनागढ़ का अजेय दुर्ग खंगार के भांजे देशल और वेशल के कुलघाती होने से टूट गया खंगार के भांजों ने अपने अपने नामों को लजाकर सिद्धराज के हाथों छल से खंगार का वध करवा दिया , किन्तु जब तक खंगार में एक कतरा भी जीवित रहा वह अपने शत्रु का मान मर्दन करता रहा उसके कटे मस्तक ने भी शत्रु को ललकारा और रुण्ड ने भी वेग से प्रहार किया ! सिद्धराज का प्रतिशोध इतना भीषण था कि उसके अपनों का कालेजा भी भय से कांप गया उसने खंगार के दोनों कुमारों का राणक दे के सामने यह कहते हुए बध कर दिया कि सांप के सपेलुए छोड़े नही जाते हैं ! राणक दे समाधिस्थ सी देखती रही , सिद्धराज उसे उसी अवस्था में बड़वान ले गया जहाँ रा खंगार के मस्तक को किले के कंगूरे पर टांग दिया गया ! समूचे राज्य में सनसनी फ़ैल गयी , राज्य का उलटफेर तो चलता है पर सिद्धराज तो सती के सत्व से खेलने को उद्दत था प्रजाजन विजय के हर्ष की जगह सती के शाप के संभावित अनिष्ट से भयभीत हो उठे !
बड़वान के राजप्रसाद में राणक दे यों प्रतीत हो रही थी जैसे मंदिर में कोई मौन मूर्ति विराजमान हो परिचारिकायें व्यर्थ ही आज्ञा पालन हेतु उपस्थित थी ! सिद्धराज वहाँ आया और राणक दे को निहारते हुए बोला "राणक दे तुम पाटन की राजलक्ष्मी हो , तुम्हें जिस दस्यु ने हरा था मैं उसे दंड दे चुका हूँ , तुम सिर्फ और सिर्फ मेरी हो , मेरा सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है आओ मेरे बगल में बैठकर पाटन की रानी बनो" जैसे घटाटोप अंधियारे में बिजली चमकी हो मूर्तिवत विराजमान माननी राणक दे बोली " मेरा सिंहासन तो जलती चिता में है जहाँ केवल और केवल वीरगति भोगने वाले मेरे स्वामी ही ऊँचा सिर करके बैठ सकते हैं आत्ममुग्ध जयसिंह तुम भला उस चिता में जीते जी क्यों जलोगे ?
सिद्धराज ने राणक दे को अपने प्रेम का वास्ता देते हुए कहा मैं तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे प्रेम में वर्षों से जल रहा हूँ ! राणक दे झिड़कते हुए बोली :- कामी कसाई हो तुम प्रेम की बात तुम्हारे मुँह से शोभा नही देती , प्रेम तो पराजय को भी विजय की तरह वरण करता है , प्रेम तो मर के जिलाने में विश्वास करता है प्रेम मार के नही जीता , मेरा यह जन्म मेरे स्वामी के साथ ही पूर्ण हो चुका है मैं यहाँ से बिना कुछ कहे ही जाना चाहती थी किन्तु यह संसार यहाँ किसी को बिना कुछ कहे सुने नही छोड़ता , सुनो सिद्धराज , जूनागढ़ भले ही टूट गया है किन्तु गिरनार अभी खड़ा हुआ है और उसकी गुहाओं में सिंह होते ही रहेंगे ! मैं तुम्हें वर तो नहीं किन्तु वीर तो अवश्य ही मानती थी और अगर मेरे माता पिता का आदेश होता तो तुम्हारा वरण भी करती किन्तु तुम पिछड़ गए , मेरा वर आ चुका था इस जगत में इस नारी का वह एकमात्र नर था ! यदि तुम चाहते तो इस पशुता से बच सकते थे , तुमने मेरे राव राना पर चढ़ाई की इसके लिए मैं तुम्हे दोष नही देती उन्होंने तुम्हे रक्त दान दिया तुम उनको भीरु नही कह सकते , उनका और तुम्हारा कुल बैर था , उन्होंने मेरा हरण नही किया बल्कि अपना हृदय देकर मेरा वरण किया था उनके हृदय में वासना नही उज्जवल उपासना थी ! जब तुमने घर के भेदियों के सहारे घर में घुसपैठ की , तब भी मैं तुम्हें राजनीति के विचार से दोष न दे सकी , किन्तु जब तुमने मेरे सामने मेरे दोनों शिशुओं की कंस के सदृश्य हत्या की तब अंत में मैंने तुम्हें कायर ही पाया ! सिद्धराज बीच में ही फिर बोल उठा " मैंने शिशुओं को किसी भावी भय के कारण नही मारा बल्कि अपने शत्रु के पाप की निशानी जानकर मिटाया जो मेरी चिर प्रेयसी के अखण्ड यौवन पर घात करने चले थे" क्षुब्ध होकर बोली राणक दे तो क्या तुम चाहते हो मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँ कि तुम्हारी किसी रानी का यौवन बिगाड़ने कभी कोई शिशु उनकी कोख में न आये ? किन्तु मैं तुम्हारे निमित्त यह प्रार्थना भी कैसे करूँ क्योंकि मैं तो चाहती हूँ कि तुम्हे भी पुत्र प्रेम का ज्ञान हो , किन्तु इंसान को सिर्फ वही प्राप्त होता है जो ईश्वर उसे देना चाहता है .....!!
सिद्धराज बोला आप मुझसे क्या कहती हो अब कह दो !
राणक दे बोली मेरे लिए चिता सजाने की आज्ञा दो और मुझे मेरे राव राणा का सिर लाकर दे दो !
ऐसा नही हो सकता कि मैं अपने हाथों अपनी निधि खो दूँ , मैं भी देखता हूँ कि कौन मुझे तुम्हे पाने से रोक सकता है यह कहते हुए कामी सिद्धराज बलपूर्वक राणक दे को पकड़ने को उद्दत हुआ दैव कृपा से तभी सिद्धराज का प्रधान जगदेव वहाँ उपस्थित हुआ और उसने सिद्धराज को फटकारते हुए उसका प्रबल प्रतिरोध किया और राणक दे को बहिन मान उसके शील सतीत्व की रक्षा के लिए स्वयं नियुक्त हुआ जगदेव के प्रयासों से साध्वी राणक दे अपने पति के मस्तक को लेकर सती हो गयी ! आज भी सोरठ की रागिनी में इस हतभागिनी की बड़भागिनी पीड़ा गुंजायमान है ..........
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शब्द संयोजन:- अशोक सूर्यवेदी
Tuesday, March 15, 2016
रामा नो छावा :- रोमा
दुनिया के 30 देशों में रोमा समुदाय लोगों की संख्या करीब 2 करोड़ है। ये उन बीस हजार भारतीयों के वंशज हैं जिन्हें दो हजार वर्ष पहले सिंकदर अपने साथ यूरोप ले गया था। इनमें लोहे के हथियार बनाने और चलाने वाले लोग अर्थात आयुधजीवी यौद्धेय , शिल्पकार और संगीतज्ञ थे। ज्यादातर रोमा रूस, स्लोवाकिया, हंगरी, सर्बिया, स्पेन और फ्रांस में बसे हैं। जबकि कुछ रोमानिया, बुल्गारिया और तुर्की में हैं। इनमें भारत की बंजारा, गुर्जर, सांसी, चौहान, खंगार , सिकलीगर, ओड आदि जातियों के लोग हैं।
रोमा समुदाय के लोग विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। इन्हें सर्वोत्तम नर्तक और संगीतकार के रूप में जाना जाता है। फिरदौसी द्वारा लिखित शाहनामा के मुताबिक पांचवीं शताब्दी में ईरान के राजा बैराम गुर के निवेदन पर एक भारतीय राजा ने वहां राष्ट्रीय उत्सव के लिए 20 हजार संगीतकार भेेजे थे। आज उन्हीं के वंशज सारे यूरोप में प्रसिद्ध कलाकार हैं। अपनी अस्मिता पर गर्व के कारण रोमा लोगों ने कठिनतम परिस्थितियों में से गुजरते हुए भी अपनी परंपराओं को जीवित बनाए रखा। वे खुद को "रामा नो छावा" अथार्त् राम के बच्चे कहते हैं .......!!
Tuesday, March 8, 2016
खड्गधारी खंगार नाव खौं चितै रहो
चंदेल चौकड़ी के मूड़ पै सवार खेत ,
खड्गधारी खंगार नाव खौं चितै रहो !
रनखेत में है खेत बाघ सौ बहादुरौ ,
काट काट मुंड अरि रुण्ड खौं रितै रहो !
चकित चाहमान भी चतेरते हैं चौज को ,
चतेरे चमु चंदेल चौंक जौ इतै रहो !
वीरन में वीर खेतसिंह रन खेत माह ,
करत किलोल करबाल खौं जितै रहो !!