Friday, August 1, 2014

काल चक्र का झंझावत और गढ़कुंडार

रत्न जडित स्वर्ण सिंहासन ,
मुक्ता मणियों के उर हार !
शीश मुकुट बहु बेशकीमती ,
सब हो गए हैं क्षार क्षार !
दुनियां वालो देखो नाटक ,
नियति नटी के नर्तन का !
काल चक्र के झंझावत में ,
बचा अकेला गढ़ कुंडार !!
..................."अशोक सूर्यवेदी"

Thursday, July 31, 2014

"गढ़कुंडार की नीरवता"

शासन सत्ता न्योता देते ,
और बुलाते आग व धार !
दरबारों की रौनकता पर ,
शीश कटाते बारम्बार !
कर्कशा ,कुटिल ,कौटाली थी ,
तजी ,रौनकता यह जान !
रचा कर नीरवता से व्याह ,
मौज मनाता गढ़ कुंडार !!
.............."अशोक सूर्यवेदी"

Wednesday, July 30, 2014

"लुकाछिपी गढ़कुंडार की"

मंजिल पास आ जाती है तो ,
आड़े आता है संसार !
रोड़े और रूकावट है भ्रम ,
लौट न जाना तू थक हार !
इसकी जटिल भुगौलिक रचना ।
हृदय भाँपती आगत का !
सो पथिक से लुकाछिपी सी ,
करता रहता गढ़ कुंडार !!
..........."अशोक सूर्यवेदी"

Tuesday, July 29, 2014

"ध्रुव तारे सा गढ़कुंडार "

आँख फेरकर कल तक निकले ,
किंतु करोगे अब तुम चार !
सच्चाई पर थी जो चादर ,
आज हुई वो जर जर तार !
इस गढ़ की गौरव गाथा सुन ,
धाये कई एक कलम वीर !
ध्रुव तारे सा चमकेगा अब ,
जग में फिर से गढ़ कुंडार !!
.........."अशोक सूर्यवेदी"

Monday, July 28, 2014

"बूढ़ा गढ़कुंडार "

धीर सुतों का ह्रदय रक्त जों ,
बना प्रसूता का सिंगार !
वीर सुतों के वर शीशों पर ,
इतराता है बारम्बार !
इतिहासों ने किया किनारा ,
बूढ़े की बातों से पर -
बार बार बलिदानी गाथा ,
दोहराता है गढ़ कुंडार !!
................."अशोक सूर्यवेदी "

को जाय चमरौरे कान ...?

डुकर बाबा घर की चिक चिक से दूर बेड़ा में सोन परन लगे ते , "उतयीं कलेवा उतयीं व्याई " जौ बंदोवस्त लरका बऊ ने कर दओ तो , डुक्को संजा सबेरें बेड़ा में रोटी के संगै " चार चोटिया " भी मौका बेमौका पकरा आउत तीं !
एक दिना की बात घरै सास बऊ में ठन गयी खूब "रांड़ें मुंडी" भईं  ! रोटी की बेरा कड़ गयी लराई में , डुक्को मों फ़ुलै कें चौंतरा पै बैठ गयीं और बऊधन गोबर लैकें द्वारौ लीपन लगीं !
उतै बेड़ा में डुक्को रोटी दैवे न पौंची , सूरज बिलात ऊपर लौ चढ़ आओ , डुकर बाबा की आंतें कुन्नान लगीं तो डुकर बाबा लठिया लेकें , खुदयीं घर ताँय टिरक चले ! गली में घुसतनईं डुक्को और बऊधन द्वायें दिखानी , बूड़े कीं आँखें ताड़ गयी कै घरै "धीनक धीना" हो गओ !
डुकर ने डुक्को सें मसकरी के लाने कई :- आज  काये मच गओ लीपक लीपा ...?
डुक्को तौ भरीं बैठीं तीं सो तपाक से बऊ की पोल खोलती बोलीं :-" बऊ नें आ न्यौत बुलाओ छीपा "
बऊ काये चुप राती ऊने सास की उघार बे खां कई :- "दद्दा सुनों हमारी बानी , बाई बुलाय आईं पंडित ग्यानी"
इतेक में डुकर कौ लरका आ गओ ऊने जानी घरै आज कछू "दार बरी" कौ औसर आ है सौ अपनी मनवासन खां बुलाबे की सिफारस के लाने बोल परो :- "इतनी धूम धाम मचाई तौ काये न धोबन गयी बुलाई "
बब्बा की बिन्नू कड़ भगीं इतेक में उनने सुनी , और सोची सब आयें तो हमाव मन बसिया काय रे जाबे सौ साद के उनयीं ने कै डारी :- "कछुक तातौ कछुक बासौ, थोरौ भौत कडेरौ खातो".....
डुकर ने सबकी सुनी और मन मसोश  कें जा कत पौर में कड़ गये कै "अपनी अपनी परी है आन को जात अब चमरौरे कान"..........हती किसा हो गयी....!!

लोकसाहित्य से विलुप्त हो रही लोककथा (किसा) को शब्द देने की एक कोशिश मात्र ......."अशोक सूर्यवेदी"

Sunday, July 27, 2014

" मैं शिला लेख का पत्थर हूँ "

भाट नहीं हूँ ना कोई चारण ,
जो बिरुदावली बखान करूँ !
शासन सत्ता राजमहल का ,
क्यों कर मैं गुणगान करूँ !
पीड़ा हूँ मैं जन गण मन की ,
खून सना संबोधन हूँ!
राजमहल से प्रश्न पूंछता ,
चौबारों का उद्बोधन हूँ !
केवल सच ही मेरी शैली है,
मैं दर्पण सा प्रतिउत्तर हूँ !
मैं झाँसी बाला बेटा हूँ ,
मैं शिला लेख का पत्त्थर हूँ !
ना चरण चूमना वंदन करना ,
पलक बिछाना सरकारों को !
जूझ के जीना जूझ के मरना,
ये आदत हम फनकारों को !
हमने हरदम डांट लगाई ,
सब कर्महीन दरवारों को !
राजतन्त्र से प्रजा तंत्र तक,
सब बेगैरत सरकारों को !
यदि विपत्ति में हो कोयल ,
गीत नहीं वो गाती है !
पिंजरे में हो मैना तो फिर,
नहीं मधुमास मनाती है !
तो क्या हम इनसे भी,
गए गुजरे इंसानों के भेष में !
कैसे हम मधुमास लिखें ,
जब आग लगी हो देश में !
मेरी आँखों में लावा है ,
विश्वास मुझे तुम शीतल दो !
शस्य श्यामला भू पर मुझको ,
मुस्कानों का समतल दो !
तो फिर मैं भी गीत लिखूंगा ,
पावस के अभिनन्दन के !
लेकिन पहले बंद करा दो ,
स्वर करुणा के क्रंदन के !
जिस दिन झोपड़ियों का आंसू ,
मुस्कान बना लेगें हम !
ना दिखे चाँद पर उस दिन ,
ईद मना लेंगे हम !!!!!!!!!

"देख चुका है गढ़कुंडार"

शौर्य वीरता के दिन देखे ,
भोगे बिलास बेशुमार !
सदा न शासक रहे चंदेले ,
रह न पाए राय खंगार !
ये शासन सत्ता राजलक्ष्मी ,
एक जगह कब ठहरे हैं ?
कैसे कैसे रूप बदलते ,
देख चुका है गढ़ कुंडार !!

"अशोक सूर्यवेदी"