Tuesday, March 14, 2017

बुंदेलखंड के चंद्रवेदी

बहुत पुरानी बात है जिन दिनों देश में अराजकता का माहौल था राजपथों पर लूट आम बात थी और लोग अपने धन को सदरी जूते के शोल आदि में छिपाकर यात्रा किया करते थे उन दिनों बुंदेलखंड की दतिया रियासत के ररुआ गाँव में राम लाल और मदन प्रसाद नाम के दो विद्वान मित्र थे ! कहते हैं कि उनमें से एक को भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास होता था और दूसरे को पक्षियों की भाषा का ज्ञान था ! एक दिन दोनों मित्र एक नदी किनारे थे तभी उन्हें जगन्नाथपुरी की यात्रा पर जाते एक धनी दंपत्ति मिले ,जब वे दोनों पानी पी रहे थे तब नदी किनारे पेड़ पर बैठा एक कौआ कांव कांव कर रहा था दोनों मित्रों में से पक्षियों की भाषा जानने वाले मित्र ने दूसरे से कहा कि यह कौआ कह रहा है कि जो कोई इस दंपत्ति की छड़ी को अपने कब्जे में लेगा वह बहुत ही धनी हो जायेगा ! वास्तव में तीर्थ यात्री दंपत्ति अपनी छड़ी में स्वर्ण मुद्रायें छिपाये हुए थे , मदन प्रसाद और रामलाल ने अपनी किश्मत आजमाने की सोची और दोनों ही तीर्थयात्री दंपत्ति के साथ हो लिए और उनके साथ घुलमिल गए  जैसे ही रामलाल और मदन प्रसाद को मौका मिला वे दोनों उस तीर्थयात्री की छड़ी लेकर चंपत हो गए !
                      अपनी पहली सफलता से उत्साहित दोनों मित्रों ने न केवल इस कारगुजारी को अपना व्यवसाय बनाया बल्कि अपने गाँव ररुआ में इस कौशल को सिखाने के लिए एक निजी संस्थान की स्थापना भी की जहाँ उठाईगिरी को एक कला के रूप में विकसित किया गया छोटे बच्चों को दिन में  चीजों को उठाने की कला सिखायी जाने लगी ! प्रवेश के समय विद्यार्थियों को चंद्रमा की शपथ दिलायी जाती थी कि वे कभी भी रात में या कि चंद्रमा की उपस्थिति में चौरकर्म नही करेंगे कदाचित उनका विश्वास था कि यह एक कला है जिसका प्रदर्शन वे सिर्फ दिन के समय जागृत लोगों के समक्ष ही करेंगे अन्यथा नही ! जब उनकी कीर्ति बढ़ी और यह चर्चा दतिया महाराज भवानी सिंह के कानों तक पहुंची तब उन्होंने खुद जाकर इस संस्थान का निरीक्षण किया और पाया कि इस संस्थान में राष्ट्रभक्ति की धारा प्रवाहित हो रही है और ये लोग वास्तविक अर्थों में राज्य के लिए  सच्चे वफादार और फायदेमंद लोग हैं दतिया महाराज संस्थान के साधकों से इस क़दर प्रभावित थे कि वे उन्हें सालाना आयोजित होने वाले दिल्ली दरबार में यात्रा के दौरान अपनी और अपनी संपत्ति के सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में साथ ले कर गए , संस्थान के इन साधकों ने अपने उत्तरदायित्व का बड़ी जिम्मेवारी से निर्वहन किया कि जब "दरबार" में यह सवाल उठा कि विभिन्न राज्यों में किस वर्ग के लोग राज्य के प्रति सबसे वफादार और लाभदायक हैं तो दतिया महाराज ने न केवल रामलाल और मदन प्रसाद के अनुयायियों का नाम लिया वर्न राज्य के प्रति उनकी सेवा समर्पण और बफादारी की मिसालें भी पेश कीं चर्चा के दौरान रामलाल और मदन प्रसाद के अनुयायियों के सरोकार और कार्यव्यवहार के कारण प्रथम बार उन्हें चंद्रवेदी नाम दिया गया ! चंद्रवेदी कहलाने के पूर्व ये लोग मदन प्रसाद और रामलाल के कुलनाम सनौरिया से जाने जाते थे , सनौरिया ब्राह्मणों की एक शाखा होती है और खंगारों की भी एक शाखा सनौरिया कहलाती है अतः रामलाल और मदन प्रसाद किस जाति के थे यह दृढ़ता पूर्वक कभी नही कहा जा सका !कुछ विद्वानों ने सनौरिया को ब्राह्मण और कुछ ने ठाकुर की उपशाखा भी माना ! हालाँकि सनौरिया जो बाद में चंद्रवेदी कहलाये किसी एक जाति का नही बल्कि चमार और मेंहतर के अतिरिक्त बुंदेलखंड की तमाम स्थानीय जातियों का संगठित गिरोह था ! जिनमें खंगार , सुनार , लोधी, सनौरिया ब्राह्मण , कायस्थ , काछी और गडरिया आदि जातियों के लोग शामिल थे ! चंद्रवेदी लंबे अरसे तक एक जाति के रूप में भले ही पहचाने गए लेकिन वे आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नही करते थे हालाँकि गिरोह के अन्य साथियों के वैवाहिक कार्यक्रमों में वे सक्रिय भागीदार होते थे !
                   चंद्रवेदी संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसे विद्वानों ने तीन तरह से कहा है 
(१) चन्द्रभेदी:- वे लोग जिनके चौर्यक्रम चंद्रमा द्वारा प्रकट हो जाते हैं !
(२) चंद्रवेधी:- वे लोग जिनके क्रियाकलाप चन्द्रमा के प्रकाश में प्रकट हो जाते हैं ! 
(३) चंद्रवेदी:- वे लोग जो चंद्रमा की उपस्थित में गलत क्रिया कलाप नही करते हैं !

संस्थान में प्रवेश :- रामलाल और मदन प्रसाद द्वारा स्थापित ट्रेनिंग स्कूल में बालकों एवं वयस्कों को उठाईगीरी सिखाने के लिए प्रवेश के समय अलग अलग प्रक्रिया से सौगंध लेनी पड़ती थी बालकों को पूर्णिमा की रात चंद्रमा की उपस्थिति में चंद्रमा की सौगंध दिलाकर शपथ दिलायी जाती थी कि चंद्रमा उनका इष्ट है और वे चंद्रमा कि शपथ लेकर कहते हैं कि वे (बालक) चंद्रमा की उपस्थिति में कभी भी चौर्यकर्म नही करेंगे , वहीं दूसरी ओर वयस्कों से इसके अतिरिक्त तुलसी गंगा लेकर वचन लिया जाता था कि वे (वयस्क) किसी भी हालत में अपने गिरोह से दगा नही करेंगे और न ही वे कभी किसी पर गिरोह के राज उजागर करेंगे !हालांकि संस्थान में वयस्कों की अपेक्षा बालकों  के प्रवेश को ज्यादा तहजीर दी जाती थी क्योंकि प्रशिक्षकों का मत था की वयस्कों की अपेक्षा बालक ज्यादा तेजी से सीखता है और उसे प्रशिक्षित किया जाना ज्यादा आसान है संस्थान को प्रशिक्षक को नालबंद कहा जाता था और एक नालबंद के आधीन प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले बालकों की संख्या अधिकतम आधा दर्जन तक होती थी !

शैक्षणिक गतिविधियां :-  संस्थान में चौर्यकला का  प्रशिक्षण भाषा पर केंद्रित था ! यह  भाषा दो भागों में विभक्त थी ! पहली गुप्त शब्दावली पर आधारित थी जिसे परसी  कहा जाता था और दूसरी गुप् संकेतों पर आधारित थी जो  टेनी कहलाती थी !

परसी :- परसी काफी विस्तृत शब्दावली थी , यह मुख्य रूप से संज्ञा पर केंद्रित थी जिसका कोई व्याकरण निश्चित नहीं था और परसी के उपयोग के लिए परसी संज्ञाओं का हिंदी के साथ घालमेल किया जाता था परसी  के कुछ उदहारण निम्नलिखित हैं -



परसी       =       हिंदी
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खुतरया     =     गट्ठर 
कनियाई    =     बटुआ 
गोंड           =     साफा 
कैथी          =     पगड़ी 
पनफटु      =      धोती 
टनाई        =      कोट 
पुजानि     =      लोटा 
ठनकी       =      थाली 
दमड़ी        =      रूपया 
 डंड            = तांबे का सिक्का 
कंपी          =      कौंड़ी 
गुल्ली        =      मोहर 
बरडला      =     बाजूबंद 
पेटी           =     पैजना 
गल्लगा     =     हार 
पिटघिसा   =     स्वर्णहार 
सेआंद       =     सोना 
उबेन         =     चाँदी 
नुकली      =  नाक की कील 
सेत्रा          =     पुस्तक 
गोनिया     =     जूते 
कठारी       =     संदूक 
टेड़ा           =     ताला चाभी 
धरकना     =     दरवाजा 
खोल         =     बनिया की दुकान 
लवानी      =     जंजीर 
बनारी       =     छड़ी 
टोकिया     =    पुलिस 
खाँचना      =    छिपाना 
उको          =    भागो 



टेनी :-  टेनी सांकेतिक चिन्ह या कि इशारों की भाषा थी जो की उठाईगिरी के सफल अभियानों को अंजाम देने के लिएबहुत ही आवश्यक और महत्वपूर्ण थी !


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क्रमशः 






अशोक सूर्यवेदी एड्वोकेट 
मऊरानीपुर झाँसी
284204