Monday, April 11, 2016

रा' खंगार और सिद्धराज

वैभवशाली सोरठ का माननीय राणा था नवघन , किन्तु सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के विरोध के चलते न केवल उसे नाकों चने चबाने पड़े बल्कि अपनी निष्कृति हेतु दांतों से तिनका भी उठाना पड़ा ! वीर पुरुष अपमान से मृत्यु को श्रेष्ठ मानते हैं तो भी सिद्धराज से बदला लेने की आस में नवघन जीता रहा किन्तु सिद्धराज के इस शत्रु की आस पूरी न हो सकी और उसका अंतिम समय आ गया , तब उसने अपने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा :- सुनो क्षत्रियों को उत्तराधिकार में अपने पूर्वजों का बैर भी लेना पड़ता है , तुममें से जो भी कोई सिद्धराज से मेरा प्रतिशोध ले सके वह मेरा सिंहासन ले ले "!
        सिद्धराज से जूझना आसान तो न था सो चारों पुत्र खामोश ही रहे , देर होती देख नवघन ने फिर कहा "मैं पाटन के तोरण कपाट अपने बल से जूनागढ़ में लाकर लगाना चाहता था , वह दिन तो आया नही किन्तु मृत्यु का दिन आ गया जीते जी मेरी अभिलाषा तो पूर्ण हुई नही मेरी मृत्यु भी निराशापूर्ण ही रही " पुत्रों के होंठ तो फड़के किन्तु बात अधरों से बाहर न आई पिता की ओर देखकर चारों ने तुरन्त ही सिर नीचे झुका लिए ! युवराज महिपाल का पुत्र खंगार भी खड़ा था पास ही उसने आगे बढ़कर कहा "राजपाठ तो पिता लें यह ठीक है किन्तु आपका यह दास आपका वैर ग्रहण करेगा आप शांति धारण करें क्रांति का जिम्मा मेरे सिर रहा" नाती की बात सुनकर बृद्ध राणा का मुरझाया चेहरा एक बार फिर दमक उठा "तू ही मेरे राज्य का योग्य उत्तराधिकारी है बेटा , तूने मेरी मृत्यु को सुखमय बना दिया" यह कहकर राणा परलोक को सिधार गया !
                        युवराज महिपाल ने अपने पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए अपने पुत्र के लिए राजपाठ छोड़ दिया , खंगार ने अपने पितामह की आज्ञा में उनके शत्रु सिद्धराज से प्रतिशोध लेने के लिए राजसत्ता सम्हाल ली ! नवघन का नाती खंगार निर्भय और साहसी था उसमे अंगार के समान तेज व्याप्त था , वह सामर्थ्यवान सिद्धराज से प्रतिशोध लेने के उपाय तलाशने लगा , किसी का हित करना किसी के लिए कठिन कार्य है किन्तु किसी का अहित करना सभी के लिए सुलभ है !
                        कहा जाता है कि सिन्धुराज की पुत्री जो स्वयं रत्नरूपा थी उसके लिए ज्योतिषियों ने ऐसे ग्रहदोष बताये थे कि यह कन्या जहाँ भी रहेगी नागिन की तरह उस घर के कुलदीपक बुझा लेगी ! सिद्धराज उस कन्या के पिता ही न थे वे राजा भी थे अतः उन्होंने अपनी उस प्राण-प्रतिमा को वन में विसर्जित कर दिया !
                        वन में वह कन्या एक निःसंतान कुम्भकार दम्पत्ति को मिली जिन्होंने बड़े ही लाड़प्यार से उस राजलली का पालन किया देवी सी रूपणी उस कन्या का नाम राणक दे रखा ! शिशु प्रेम से ही नही चाव से पाले जाते हैं , जो हाथ मिट्टी को आकर देकर स्वर्ण बना देने का काज करते हों वे हाथ भला प्राणाधिक प्रिय कन्या को सँवारने में क्या कसर छोड़ते .....कुंभकार दम्पति के हाथों में राणक दे की गुणगरिमा विकसित होने लगी ! जब वह रूपसी अपने यौवन को प्राप्त हुई तब उस हेमनलिनी की चर्चा चारों ओर चलने लगी , उस के रूप गुण की गंध पाकर सिद्धराज जय सिंह भी आखेट के बहाने राणक दे को पाने की अभिलाषा अपने मन में लिए उसकी सीमा तक आया !
                         जैसे ही यह समाचार खंगार को मिला तो गर्वीले गिरनार का वह सिंह प्रतिशोध का अवसर उपस्थित जान बीच में ही कूँद पड़ा ! कुम्भकार के घर रात में उपस्थित हो खंगार ने राणक दे से प्रणय निवेदन किया और अपने कुम्भकार माता पिता की सम्मति राणक ने रा' खंगार का वरण किया ! नव दंपत्ति के नयनों में प्रेमअश्रु और होंठों पर विजयी मुस्कान थी , जैसे सृष्टि में ओस भरे दो फूल खिले हों ! राणक दे और रा' खंगार के मिलन से वायुमंडल महक उठा !
                             उधर राणक दे रा खंगार की परिणीता हुई और इधर सुनकर सिद्धराज की छाती धधक गयी , उसके हृदय पर भयंकर बज्रपात हुआ उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो पाटन की पटरानी को खंगार ने हर लिया हो दग्ध हृदय से उसने प्रतिज्ञा ली कि "अब धरा पर या तो खंगार ही रहेगा या सिद्धराज".....!!
                               सिद्धराज को अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने में उसे 15 वर्ष लगे इन 15 बर्षों में वह बराबर खंगार से मुँह की खाता रहा और खंगार ने अपने पितामह के प्रणों को पूर्ण किया ! सिद्धराज और खंगार दोनों ही अपने अपने प्रणों के परायण को उद्दत थे , खंगार अपने शत्रु से भागभंग और रानी से रागरंग एक सी उमंग में निभा रहा था इस दौरान राणक दे और खंगार के निश्छल प्रेम से दो नवांकुर सोरठ के महल में पनपे !
                           जूनागढ़ का अजेय दुर्ग खंगार के भांजे देशल और वेशल के कुलघाती होने से टूट गया खंगार के भांजों ने अपने अपने नामों को लजाकर सिद्धराज के हाथों छल से खंगार का वध करवा दिया , किन्तु जब तक खंगार में एक कतरा भी जीवित रहा वह अपने शत्रु का मान मर्दन करता रहा उसके कटे मस्तक ने भी शत्रु को ललकारा और रुण्ड ने भी वेग से प्रहार किया ! सिद्धराज का प्रतिशोध इतना भीषण था कि उसके अपनों का कालेजा भी भय से कांप गया उसने खंगार के दोनों कुमारों का राणक दे के सामने यह कहते हुए बध कर दिया कि सांप के सपेलुए छोड़े नही जाते हैं ! राणक दे समाधिस्थ सी देखती रही , सिद्धराज उसे उसी अवस्था में बड़वान ले गया जहाँ रा खंगार के मस्तक को किले के कंगूरे पर टांग दिया गया ! समूचे राज्य में सनसनी फ़ैल गयी , राज्य का उलटफेर तो चलता है पर सिद्धराज तो सती के सत्व से खेलने को उद्दत था प्रजाजन विजय के हर्ष की जगह सती के शाप के संभावित अनिष्ट से भयभीत हो उठे !
                             बड़वान के राजप्रसाद में राणक दे यों प्रतीत हो रही थी जैसे मंदिर में कोई मौन मूर्ति विराजमान हो परिचारिकायें व्यर्थ ही आज्ञा पालन हेतु उपस्थित थी ! सिद्धराज वहाँ आया और राणक दे को निहारते हुए बोला "राणक दे तुम पाटन की राजलक्ष्मी हो , तुम्हें जिस दस्यु ने हरा था मैं उसे दंड दे चुका हूँ , तुम सिर्फ और सिर्फ मेरी हो , मेरा सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है आओ मेरे बगल में बैठकर पाटन की रानी बनो" जैसे घटाटोप अंधियारे में बिजली चमकी हो मूर्तिवत विराजमान माननी राणक दे बोली " मेरा सिंहासन तो जलती चिता में है जहाँ केवल और केवल वीरगति भोगने वाले मेरे स्वामी ही ऊँचा सिर करके बैठ  सकते हैं आत्ममुग्ध जयसिंह तुम भला उस चिता में जीते जी क्यों जलोगे ?
सिद्धराज ने राणक दे को अपने प्रेम का वास्ता देते हुए कहा मैं तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे प्रेम में वर्षों से जल रहा हूँ ! राणक दे झिड़कते हुए बोली :- कामी कसाई हो तुम प्रेम की बात तुम्हारे मुँह से शोभा नही देती , प्रेम तो पराजय को भी विजय की तरह वरण करता है , प्रेम तो मर के जिलाने में विश्वास करता है प्रेम मार के नही जीता , मेरा यह जन्म मेरे स्वामी के साथ ही पूर्ण हो चुका है मैं यहाँ से बिना कुछ कहे ही जाना चाहती थी किन्तु यह संसार यहाँ किसी को बिना कुछ कहे सुने नही छोड़ता , सुनो सिद्धराज , जूनागढ़ भले ही टूट गया है किन्तु गिरनार अभी खड़ा हुआ है और उसकी गुहाओं में सिंह होते ही रहेंगे ! मैं तुम्हें वर तो नहीं किन्तु वीर तो अवश्य ही मानती थी और अगर मेरे माता पिता का आदेश होता तो तुम्हारा वरण भी करती किन्तु तुम पिछड़ गए , मेरा वर आ चुका था इस जगत में इस नारी का वह एकमात्र नर था ! यदि तुम चाहते तो इस पशुता से बच सकते थे , तुमने मेरे राव राना पर चढ़ाई की इसके लिए मैं तुम्हे दोष नही देती उन्होंने तुम्हे रक्त दान दिया तुम उनको भीरु नही कह सकते , उनका और तुम्हारा कुल बैर था , उन्होंने मेरा हरण नही किया बल्कि अपना हृदय देकर मेरा वरण किया था उनके हृदय में वासना नही उज्जवल उपासना थी ! जब तुमने घर के भेदियों के सहारे घर में घुसपैठ की , तब भी मैं तुम्हें राजनीति के विचार से दोष न दे सकी , किन्तु जब तुमने मेरे सामने मेरे दोनों शिशुओं की कंस के सदृश्य हत्या की तब अंत में मैंने तुम्हें कायर ही पाया ! सिद्धराज बीच में ही फिर बोल उठा " मैंने शिशुओं को किसी भावी भय के कारण नही मारा बल्कि अपने शत्रु के पाप की निशानी जानकर मिटाया जो मेरी चिर प्रेयसी के अखण्ड यौवन पर घात करने चले थे" क्षुब्ध होकर बोली राणक दे तो क्या तुम चाहते हो मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँ कि तुम्हारी किसी रानी का यौवन बिगाड़ने कभी कोई शिशु उनकी कोख में न आये ? किन्तु मैं तुम्हारे निमित्त यह प्रार्थना भी कैसे करूँ क्योंकि मैं तो चाहती हूँ कि तुम्हे भी पुत्र प्रेम का ज्ञान हो , किन्तु इंसान को सिर्फ वही प्राप्त होता है जो ईश्वर उसे देना चाहता है .....!!
सिद्धराज बोला आप मुझसे क्या कहती हो अब कह दो !
राणक दे बोली मेरे लिए चिता सजाने की आज्ञा दो और मुझे मेरे राव राणा का सिर लाकर दे दो !
ऐसा नही हो सकता कि मैं अपने हाथों अपनी निधि खो दूँ , मैं भी देखता हूँ कि कौन मुझे तुम्हे पाने से रोक सकता है यह कहते हुए कामी सिद्धराज बलपूर्वक राणक दे को पकड़ने को उद्दत हुआ दैव कृपा से तभी सिद्धराज का प्रधान जगदेव वहाँ उपस्थित हुआ और उसने सिद्धराज को फटकारते हुए उसका प्रबल प्रतिरोध किया और राणक दे को बहिन मान उसके शील सतीत्व की रक्षा के लिए स्वयं नियुक्त हुआ जगदेव के प्रयासों से साध्वी राणक दे अपने पति के मस्तक को लेकर सती हो गयी ! आज भी सोरठ की रागिनी में इस हतभागिनी की बड़भागिनी पीड़ा गुंजायमान है ..........
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शब्द संयोजन:- अशोक सूर्यवेदी